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________________ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका २३७ तव पादौ मम हृदये मम हृदयं तद पदद्वये लीनम् । तिष्ठतु जिनेन्द्र! तावद् यावन्निर्वाण-सम्प्राप्तिः ।।२।। अक्खर-पयत्य-हीणं मत्ता-हीणं च जं मए भणियं । तं खमड णाणदेवय ! मज्झवि दुक्खक्खयं कुणउ ॥३॥ हे भगवन् ! मुझे जब तक मोक्ष की प्राप्ति न होवे तब तक भव-भव में शासों का पान-मनन चिंतन, जिन गणों को नमन, सज्जनों की संगति, सच्चारित्रवानों के गुणों की कथा, परदोष-कथन में मौन, विवाद में मौन, सब जीवों के साथ प्रिय व हितकर वचन, अपने आत्मस्वरूप की भावना इन सबकी मुझे प्राप्ति हो। हे जिनेन्द्र, मुझे जब तक मुक्ति प्राप्त न हो तब तक आपके दोनों चरण-कमल मेरे हृदय में विराजमान रहें, मेरा हृदय आपके चरण-कमलों में लीन रहे। हे कैवल्यज्योतिमयी ज्ञानदेव ! मेरे द्वारा जो भी अक्षर मात्रा-पदअर्थ में होनाधिक कहा गया हो उसे क्षमा कीजिये और मेरे दुखों का क्षय कीजिये। आलोचना इच्छामि भंते ! समाहित्ति-काउस्सग्गो को तस्सालोचेडे, रयणत्तयसरूव-परमप्प- ज्झाण-लक्खण-समाहि-भत्तीए सया णिच्चकालं अच्चेमि, पुज्जेमि, वंदामि, णमस्सामि, दुक्खक्ख्मो , कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगहगमणं, समाहि-मरणं, जिण-गुण संपत्ति होदु मज्झं । हे भगवन ! मैंने समाधिभक्ति का कायोत्सर्ग किया, तत्संबंधी आलोचना करने की मैं इच्छा करता हूँ। मैं रत्नत्रयस्वरूप परमात्मा का ध्यान है लक्षण जिसका ऐसी समाधिभक्ति की सदा अर्चना, पूजा करता हूँ, वन्दना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ , मेरे दुःखों का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो, रत्नत्रय का लाभ हो, सुगति में गमन हो, सम्यक् प्रकार आधिव्याधि-उपाधिरहित समाधिपूर्वक मरण हो मुझे जिनेन्द्रदेव के गुणरूप सम्पत्ति की प्राप्ति हो । [इति श्रावक प्रतिक्रमण समाप्तं ]
SR No.090537
Book TitleVimal Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSyadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size8 MB
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