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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
२११ परमेष्ठी मुझे निर्मल केवलज्ञान का लाभ, बोधि/रत्नत्रय की प्राप्ति और समाधि अर्थात् ध्यान की सिद्धि प्रदान करें ।
चन्द्रमा के समान निर्मल, सूर्य से भी अधिक प्रकाशमान, सागर के समान गंभीर ऐसे सिद्ध परमेष्ठी मेरे लिये सिद्धि को प्रदान करें ।
श्रीमते वर्धमानाय नमो नमित-विद्विषे ।
यज्ज्ञानाऽन्तर्गतं भूत्वा त्रैलोक्यं गोष्पदाऽयते ।।१।। जिनके ज्ञान में तीन लोक के समस्त पदार्थ गोखुर ( गया के खुर ) के समान झलकते हैं, जिनके चरणों में उपसर्ग करने वाले शत्रु का सिर झुक गया है ऐसे बाह्य समवशरण लक्ष्मी और अन्तरंग अनन्त चतुष्टय लक्ष्मी के धारक श्री वर्धमान जिन के लिये नमस्कार हो ।
लघु सिद्ध भक्ति तव-सिद्धे णय-सिद्धे, संजम-सिद्धे चरित्त-सिद्ध य । णाणम्मि दंसणम्मि य, सिद्धे सिरसाणमंस्लामि ।।२।।
तप सिद्ध, नय सिद्ध, संयम सिद्ध, चरित्र सिद्ध, ज्ञान और दर्शन से सिद्ध पद को प्राप्त हुए सभी सिद्ध परमात्माओं को नमस्कार हो ।
अञ्चलिका इच्छामि भंते ! सिद्ध-भत्ति-काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेलं, सम्मणाण-सम्म-दंसण-सम्म-चरित-जुत्ताणं, अट्ठ-विह-कम्म-विष्णमुक्काणं, अट्ठ-गुण-संपण्णाणं, उल-लोए-मत्थयम्मि पयष्टियाणं, तव सिद्धाणं, णय-सिद्धाणं, संजम-सिद्धाणं, चरित्त-सिद्धाणं, अतीदाणागदवट्टमाण-कालत्तय-सिद्धाणं, सव्व-सिद्धाणं णिच्चकालं अच्चेमि, पुज्जेमि, बंदामि, णमस्सामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहि- मरणं, जिण-गुण-संपत्ति होदु मज्झं ।
हे भगवन् ! मैंने सिद्धिभक्ति का कायोत्सर्ग किया, उसकी आलोचना करने की इच्छा करता हूँ। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्र से युक्त आठ प्रकार के कर्मों से रहित, सम्यक्त्व आदि आठ गुणों से सम्पन्न ऊर्ध्वलोंक के मस्तक प्रतिष्ठित तपसिद्ध, नयसिद्ध, संयमसिद्ध, चारित्रसिद्ध, भूत-भविष्यत्-वर्तमान काल त्रयकालसिद्ध सब सिद्धों की मैं सदा नित्यकाल/