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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका तस्मात्तदर्थममलं गृहि-बोधनार्थ,
__ वक्ष्ये विचित्र-भव-कर्म-विशोधनार्थम् ।।१।। जीव मे प्रमाद जनित अनेक दोष पाये जाते हैं। वे दोष प्रतिक्रमण करने से भय को प्राप्त होते हैं। इसलिये अनेक, भवों में संचित हुए विचित्र कर्मरूप दोषों की विशुद्धि के लिये गृहस्थों को समझने के लिये मैं प्रतिक्रमण को कहूँगा।
पापिष्ठेन दुरात्मना जड़धिया मायाविना लोभिना, रागद्वेष- मलीमसेन मनसा दुष्कर्म यनिर्मितम् । प्रेलोक्याधिपते ! जिनेन्द्र ! भवतः श्रीपादमलेऽधुना,
निन्दापूर्वमहं जहामि सततं वर्तिषुः सत्पथे ।। २।। हे तीन लोक के अधिपति जिनेन्द्रदेव ! अत्यन्त पापी, दुरात्मा, मूर्खबुद्धि, मायावी, लोभी, राग-द्वेष से मलीन मेरे मन ने जो दुष्कर्म उपार्जन किया है उसका सतत/निरंतर समीचीन मार्ग में चलने का इच्छुक मैं आप जिनेन्द्र के चरण-कमलों में अब निन्दा अर्थात् स्वसाक्षी से अपने दुष्कृत्यों की निन्दा करता हुआ, त्याग करता हूँ।
खम्मामि सयजीवाणं सव्ये जीवा खमंतु मे।
मेत्ती मे सव्वभूदेस, वेरं माझं ण केण वि ।।३।।
सब जीवों को मैं क्षमा करता हूँ, सब जीव मुझे क्षमा करें, सब जीवों में मेरा मैत्रीभाव है, मेरा किसी के भी साथ वैरभाव नहीं है।
रागबंयपदोसं च, हरिसं दीणभावयं । उस्सुगतं भयं सोगं रदिमरदिं च वोस्सरे ।।४।। राग परिणाम से होने वाले कर्मबंध और द्वेष, हर्ष, दीनभाव, उत्सुकता, भय, शोक, रति और अरति का परित्याग करता हूँ।
राग-इष्ट प्राप्ति में होने वाले परिणाम । द्वेष-अनिष्ट संयोग, इष्ट वियोग जनित परिणाम । दीनता-विषय प्राप्ति के परिणाम | हर्ष-मदोन्मतता अर्थात् अभिमान से उत्पन्न परिणाम । भय- इहलोक-परलोक सम्बन्धी भय । शोक-इष्ट वियोग जनित परिणाम | रति-पर वस्तु की आकांक्षा रूप मनोविकार । अरति-परवस्तु की अनाकांक्षा रूप परिणाम |