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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका शील-प्रावरणा गुण-प्रहरणा-श्चन्द्रार्क-तेजोधिका । मोक्ष-द्वार-कपाट-पाटन-भटाः प्रीणंतु मां साधवः ।।४।। गुरवः पान्तु नो नित्यं ज्ञान-दर्शन-नायकाः । चारित्रार्णव-गंभीरा मोक्ष-मागोपदेशकाः ।।५।।
अंजलिका इच्छामि भंते ! आइरिय- भत्ति काउस्सग्गो कओ, तस्सालोचेडे, सम्म- णाण- सम्म दसण-सम्मचरित्त-जुत्ताणं, पंच-विहाचाराणं, आयरियाणं, आयारादि-सुद-णाणोवदेसयाणं, उवज्झायाणं, ति-रयणगुण-पालण-रयाणं, सव्व-साहूणं णिच्चकालं अच्चमि, पुज्जेमि, वंदामि, णमस्सामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो सुगइ-गमणं, समाहिमरणं, जिण-गुण-सम्पत्ति होदु मज्झं ।
बद-समि-दिदिय-रोधोलोचावासय-मचेल-मण्हाणं । खिदि- सयण-मदंतवणं ठिदि- भोयण-मेय भत्तं च ।। १ ।। एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरोहिं पपणत्ता। एत्य पमाद-कदादो अइचारादो णियत्तोहं ।।२।।
छेदोवडावणं होदु मज्झं विशेष--[ इन सबका अर्थ पूर्व में आ चुका है ]
अथ सर्वातिचार-विशुद्ध्यर्थ ( पाक्षिक ) ( चातुर्मासिक ) (वार्षिक) प्रतिक्रमण-क्रियायां कृत-दोष-निराकरणार्थं, पूर्वाचार्यानुक्रमेण, सकलकर्म-क्षयार्थ, भाव-पूजा-वंदना-स्तव-समेतं सिद्ध-चारित्र-प्रतिक्रमण. निष्ठित करण-चन्द्रवीर-शान्ति-चतुर्विंशति-तीर्थकर-चारित्रालोधानाचार्य वृहदालोचनाचार्य - मध्यमालोचनाचार्य, क्षुल्लकालोचनाचार्य भक्तीः कृत्वा तद्धीनाधिकत्वादिदोष-विशुद्ध्यर्थं आत्मपवित्री-करणार्थ, समाधिभक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहम्
अर्थ- अब अपने व्रतों में लगे सब अतिचारों की विशुद्धि के लिये पाक्षिक अर्थात् १५ दिन में ( चातुर्मास में, एक वर्ष में ) प्रतिक्रमण क्रिया में पूर्व आचार्यों के अनुक्रम से सम्पूर्ण कर्मों के क्षय के लिये, भावपूजा, वन्दना, स्तव सहित सिद्धभक्ति, चारित्रभक्ति, प्रतिक्रमणभक्ति, निष्ठितिकरण