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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
( पूज्ये ) उन्हीं शान्तिनाथ भगवान् अर्हन्तदेव रूप में पूज्य होने पर समवशरण में विराजमान हो भव्यात्माओं के लिये हितोपदेश देने पर ( देवचक्रं ) देव समूह अर्थात् भवनवासी, व्यन्तरवासी ज्योतिषी व कल्पवासी चतुर्निकाय देवों का समूह ( मुहुः ) बार-बार ( प्राञ्जलि ) अञ्जलिबद्ध हुआ था तथा (ध्यानोन्मुखे) शुक्लध्यान के सम्मुख होने पर (ध्वंसि कृतान्तचक्रं ) क्षय को प्राप्त हुआ कर्मों का समूह ( प्राञ्जलि ) अञ्जलिबद्ध था मानो शरण की भिक्षा माँग रहा था ।
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स्वदोष - शान्त्या विहितात्म- शान्तिः शान्ते विधाता शरणं गतानाम् । भूयाद् भव- क्लेशभयोपशान्त्यै, शान्ति- र्जिनो मे भगवान् शरण्यः । । ५ । । अन्वयार्थ - ( स्वदोषशान्त्या ) अपने घातिया कर्म दोषों की शान्ति अर्थात् क्षय से ( विहितात्मशान्तिः ) प्राप्त किया है आप को जिन्होंने, जो ( शरणं गतानां ) शरण में आये हुए भव्य जीवों को ( शान्तेर्विधाता ) शान्ति को करने वाले हैं, जो ( जिनः ) घातियाकर्म रूप शत्रुओं को जीतने से जिन हैं जो ( भगवान् ) भग=ज्ञान वान् युक्त अर्थात् जो केवलसे युक्त हैं ( शरण्यः ) संसार के दुःखों से अरक्षित जीवों को शरण देने में निपुण हैं वे ( शान्तिः ) शान्तिनाथ / तीर्थंकर जिनेन्द्र ( मे ) मेरे ( भवक्लेशभयोपशान्त्यै ) संसार के परिभ्रमण, जन्म-मरण रूप क्लेशों और भयों की पूर्ण शान्ति के लिये ( भूयात् ) होवें ।
ज्ञान
चतुर्विंशति स्तुति
'चवीस तित्थयरे उसहाड़ बीर पच्छिमे वन्दे ।
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सब्वे सगण गण हरे सिद्धे सिरसा णमंसामि ||१||
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ये लोकेऽष्टसहस्त्र - लक्षण
धरा, ज्ञेयार्णवान्तर्गता,
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हेतु मथना चन्द्रार्क तेजोऽधिकाः ।
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क्रियाकलाप पृष्ठ ११२ के अनुसार ।
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ये सम्यग् भव- जाल ये साध्विन्द्र सुराप्सरोगणशतै गीत- प्रणूतार्चिता
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स्तान् देवान् वृषभादि- वीर चरमान्, भक्त्या नमस्याम्यहम् ।१२ । । नाभेयं देवपूज्यं जिनवर - मजितं, सर्व लोक प्रदीपम्,
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सर्वज्ञं संभवाख्यं मुनि-गण- -वृषभं, नन्दनं देव-देवम् ।
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