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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
वद समि- दिदिय - रोधा लोचावासय मचेल - मण्हाणं ।
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खिदि सयण-मदंतवणं ठिदि भोयण-मेय भत्तं च ।। १ ।।
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एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता । एत्थ पमाद - कदादो अइचारादो णित्तो हं ।।२।। दोडावणं होदू मज्झ
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शान्ति चतुर्विंशति स्तुति
अथ सर्वातिचार-विशुद्ध्यर्थं पाक्षिक ( चातुर्मासिक) (वार्षिक) प्रतिक्रमण क्रियायां कृत- दोष-निराकरणार्थं, पूर्वाचार्यानुक्रमेण, सकलकर्मक्षयार्थ, भाव पूजा वन्दना स्तव समेतं, शान्ति चतुर्विंशति तीर्थंकरभक्ति कायोत्सर्गं करोम्यहम् ।
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अर्थ — अब सर्व अतिचारों की विशुद्धि के लिये पाक्षिक ( चातुर्मासिकसांवत्सरिक ) प्रतिक्रमण क्रिया में पूर्व आचार्यों के अनुक्रम से, सम्पूर्ण कर्मों के क्षय के लिये भावपूजा वन्दना, स्तव सहित शान्ति चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति सम्बन्धी कम्पोत्सर्ग को मैं करता हूँ !
इस प्रकार उच्चारण कर णमो अरहंताण इत्यादि दण्डक पढ़कर ९ बार णमोकार मंत्र पढ़े । पश्चात् थोस्सामि स्तव पढ़कर “विधाय रक्षा" इत्यादि शान्ति कीर्तना और चतुर्विंशति तीर्थंकर की कीर्तना पढ़कर अञ्चलका पढ़ें ।
शान्ति कीर्तना
विधाय रक्षा परतः प्रजानाम्, राजा चिरं योऽप्रति-मप्रतापः । व्यषात् पुरस्तात् स्वत एव शान्ति मुनिर्दयामूर्तिरिवाघशान्तिम् ।। १ ।।
अन्वयार्थ - ( यः ) जो शान्तिनाथ भगवान् ( प्रजानां ) प्रजा की ( परतः ) शत्रुओं से ( रक्षां विधाय ) रक्षा करके ( चिरं ) चिरकाल तक ( अप्रतिम प्रताप ) अतुल प्रतापी ( राजा ) राजा हुए ( पुरस्तात् ) पश्चात् ( स्वत एव ) स्वयं ही बिना किसी के संबोधन या उपदेश को पा, स्वयंभू भगवान् ( मुनिः शान्तिः ) शान्ति को प्राप्त कर मुनि हो जिन्होंने ( दयामूर्तिः इव ) दया की मूर्ति की तरह ( अघशान्तिं ) घातिया कर्मरूप पापों की शान्ति ( व्यधात् ) की ।