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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका तपश्चरण रूप कार्य से जिनका तेज आश्चर्यकारी था अथवा भव्यात्माओं को प्रतिबोधित करने रूप कर्म में जिनका केवलज्ञानरूप तेज आश्चर्यकारी था ( अनन्तधामाचरविश्वचक्षुः) अनन्त ज्ञान अर्थात् अनन्त केवलज्ञान ही जिनका लोकालोक प्रतिभासक अविनाशी चक्षु था ( च ) और ( शासनः ) जिनका शासन ( समस्त ) मुझ समन्तभद्र के अथवा सम्पूर्ण जीवों के समस्त चतुर्गति संबंधी ( दुःखक्षय ) दु:खों का क्षय करने वाला था। स चन्द्रमा भव्य- कुसुमीत्रां, विपन्न-दोना-माना नेपः । व्याकोश-वाङ्-न्याय-मयूख मालः, पूयात्पवित्रो भगवान्मनो मे ।।५।।
अन्वयार्थ–जो ( भव्यकुमुद्वतीनां ) भव्यरूपी कुमुदिनियों को विकसित करने के लिये ( चन्द्रमाः ) चन्द्रमा हैं, ( विपन्नदोषाभ्रकलंकलेपः ) विनष्ट हो गया है रागादि दोषों रूप बादलों के कलंक का आवरण जिनका ( व्याकोशवाइन्यायमयूखमाल: ) जो अत्यन्त स्पष्ट वचनों को न्यायरूप किरणों की माला से युक्त हैं, ( पवित्र: ) पवित्र हैं, अर्थात् घाति कर्म रूप मल से रहित शुद्ध हैं ( स: भगवान् ) वे चन्द्रप्रभ भगवान् ( मे ) मेरे ( मन: ) मन को ( पूयात् ) पवित्र करें ।
वीरभक्ति यः सर्वाणि चराचराणिविधिवद्व्याणि तेषां गुणान, पर्यायानपि भूत-भावि- भवतः सर्वान् सदा सर्वदा । जानीते युगपत् प्रतिक्षण-मतः सर्वज्ञ इत्युच्यते, सर्वज्ञाय जिनेश्वराय महते वीराय तस्मै नमः ।।१।। वीरःसर्व-सुरासुरेन्द्र-महितो वीरं बुधाः संश्रिता, वीरेणाभिहतः स्व-कर्म-निचयोवीराय भक्त्या नमः । वीरात् तीर्थ-मिदं प्रवृत्त-मतुलं वीरस्य घोरं तपो, वीरे श्री-धुति-कांति-कीर्ति-घृतयो हे वीर ! भद्रं त्वयि ।।२।। ये वीर-पादौ प्रणमन्ति नित्यं,
ध्यान-स्थिताः संयम-योग-युक्ता । तेवीत शोका कि भवन्ति लोके,
संसार-दुर्गविषमं तरन्ति ।।३।।