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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका ५. श्रोत्र इन्द्रिय निरोध-षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, धैवत और निषाद सप्त स्वर जो जीव या अजीव से उत्पन्न हों उनमें राग का उत्पन्न नहीं होना श्रोत्र इन्द्रिय निरोध है।
षट् आवश्यक सामायिक, स्तुति, बन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और व्युत्सर्ग= ६ आवश्यक
१. सामायिक-जीवन-मरण में, लाभ-अलाभ में, संयोग-वियोग में, मित्र-शत्रु में तथा सुख-दु:ख इत्यादि में समभाव होना सामायिक है ।
२. स्तुति-ऋषभ आदि चतुर्विंशति तीर्थंकरों के नाम का कथन, उनके गुणों का कीर्तन, पूजा तथा उन्हें मन-वचन-काय पूर्वक नमस्कार करना स्तव नामक आवश्यक हैं ।
३. वन्दना-आति आदि पंन्न परमेष्टी का ग चतुर्विंशति तीर्शकों का अलग-अलग वन्दन, गुणकीर्तन व मन-वचन काय से प्रणाम करना वन्दना है।
४. प्रतिक्रमण—निन्दा और गर्हापूर्वक मन-वचन-काय के द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के विषय में किये गये अपराधों का शोधन करना प्रतिक्रमण है।
५. प्रत्याख्यान-भविष्य में आने वाले पापास्रव के कारणभूत अयोग्य नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का मन-वचन-काय से त्याग करना प्रत्याख्यान है।
६. व्युत्सर्ग-दैवसिक, रात्रिक आदि नियम क्रियाओं में आगम कथित प्रमाण के द्वारा आगम में कथित काल में जिनेन्द्र देव के गुणों के चिन्तवन से सहित होते हुए शरीर से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है।
सप्त शेष गुण १. लोच--प्रतिक्रमण सहित दो, तीन, चार मास में उत्तम, मध्यम, जधन्यरूप सिर व दाढ़ी, मूछ के केशों का लोच उपवास पूर्वक ही करना चाहिये।