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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका एदे खलु मूलगणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता । एत्थ पमाद कदादो अइचारादो णियत्तो हं ।।२।।
छेदोवट्ठावणं होदु मज्झं ।।३।। इस प्रकार आचार्य श्री उपर्युक्त पाठ को तीन बार बोलकर अरहंतदेव के समक्ष अपने दोषों की आलोचना करें । पश्चात् जैसे दोष लगे हों उनके अनुसार स्वयं प्रायश्चित्त लेकर निम्नलिखित पाठ तीन बार बोलें ।
पञ्चमहाव्रत-पञ्चसमिति-पञ्चेन्द्रियरोध-षडावश्यक-क्रियालोचादयोऽष्टविंशति- मूलगुणाः, उत्तमक्षमामार्दवार्जव-शौच सत्य-संयमतप-स्त्यागाकिञ्चन्य ब्रह्मचर्याणि दश-लाक्षणिको धर्मः, अष्टादश-शीलसहस्राणि, चतुरशीति-लक्ष-गुणा, त्रयोदशविध चारित्रं, द्वादशविघं तपश्चति । सकलं-सम्पूर्ण अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व-साधु-साक्षिकं सम्यवस्वपूर्वकं दृढ-व्रतं, सुव्रतं, समारूवं ते मे भवतु ।। १।।
[ सर्व आलोचना प्रकारण का अर्थ दैवसिक प्रतिक्रमण में देखिये]
उपर्युक्त पंचमहाव्रत-पंचसमिति आदि पाठ तीन बार बोलकर प्रायश्चित्त के योग्य शिष्यों को प्रायश्चित्त देवें । पश्चात् देव के लिये निम्नलिखित गुरुभक्ति बोलें।
[ निष्ठापनाचार्य भक्ति] प्रतिज्ञा--अथ नमोस्तु श्री निष्ठापना आचार्य भक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहम् -
अर्थ-नमस्कार हो, निष्ठापन श्री आचार्य भक्ति सम्बन्धी कायोत्सर्ग करता हूँ।
कायोत्सर्गकरना श्रुत-जलधि-पारगेभ्यः स्व-पर-मत-विभावना-पटु-मतिभ्यः । सुचरित-तपो-निधिभ्यो नमो गुरुभ्यो गुण-गुरुभ्यः ।।१।। छत्तीस-गुण-समग्गे पंच-विहाचार-करण-संदरिसे । सिस्साणुग्गह-कुसले अम्माइरिए. सदा बन्दे ।।२।।
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