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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
में ( एवमादिया ) इस प्रकार की कथाओं में ( जा त्रचिगुत्ती ) जो वचनों का गोपन ( ण रक्खिया) वचनों का रक्षण स्वयं मैंने नहीं किया हो ( खाविया) दूसरों से रक्षण नहीं कराया हो ( ण रक्खिज्जंत वि समर्माणदो ) वचन गुप्ति का रक्षण नहीं करने वालो की अनुमोदना की हो तो ( तस्स ) उस वचन गुप्ति सम्बन्धी (मे) मेरे ( दुक्कडं ) दुष्कृत (मिच्छा ) मिथ्या हो ।
काय गुप्ति संबंधी दोषों की आलोचना
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तत्थ काय गुत्ती चित्त कम्मेसु वा पोत कम्मेसु वा, कट्ठ-कम्मेसु वा, लेप्प- कम्पेसुवा, लय- कम्मेसु वा, एवमाश्यासु जा काय गुत्ती, पण रक्खिया, ण रक्खाविया, ण रक्खिज्जंतं वि समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कलं ।। १४ ।।
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अन्वयार्थ - ( तत्थ कायगुत्ती ) चित्र आदि स्त्रियों के रूप आदि में अपने हाथ-पैरों का रक्षण करना तथा अपने हाथ-पैर आदि को यथेष्ट प्रवृत्ति रोकना कायगुप्ति है। चेतन स्त्री के रूप आदि में तो ब्रह्मचर्यव्रत होने से काय गुप्ति सिद्ध ही हैं, अचेतन के विषय में किस-किस में काय का गोपन करना चाहिये उसे आगे कहते हैं - ( चित्तकम्मेसु) चित्र - रचना कार्यों में अर्थात् स्त्री की फोटो आदि में (वा) अथवा ( पोत्तकम्मेसु ) पुस्तकर्म अर्थात् ग्रंथ लेखन कार्यों में (वा) अथवा ( कटुकम्पेसु ) काष्ठ की बनी पुत्तलिका आदि कार्यों में (लेप्पकम्मेसु) लेपकर्म संबंधी कार्यों में ( एवमाइयासु ) इस प्रकार स्त्री के प्रतिबिंब आदि में मैंने जो ( कायगुत्ती ण रक्खिया) कायगुप्ति का रक्षण स्वयं नहीं किया हो ( या रक्खाविया ) कायगुप्ति का रक्षण नहीं कराया हो ( या रक्खिज्जंतं वि समणुमणिदो ) और संरक्षण नहीं करने वालों की भी अनुमोदना की हो ( तस्स ) उस कायगुप्ति संबंधी ( मे दुक्कडं ) मेरे दुष्कृत (मिच्छा ) मिथ्या हों । आलोचनाओं का उपसंहार तथा कलाकांक्षा संबंधी विवेचन
दोसु अट्ट - रुद्द संकिलेस - परिणामेसु, तीसु अध्य-सत्य- संकिलेसपरिणामेसु मिच्छाणाण-मिच्छादंसण- मिच्छाचरित्तेसु, चउसु उवसग्गेसु. चउसु सण्णासु, चउसु पच्चएसु, पंचसु चरित्तेसु, छसु जीव- णिकाएसु,