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वास्तु चिन्तामणि
XXI
संरचनाओं का विवरण है। ठक्कर फेर कृत वास्तुसार में भी वास्तु के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलती है।
इस ग्रंथ रचना का मेरा मन्तव्य मात्र इतना ही है कि गृहस्थ निराकुल हों तथा शातिपूर्वक दान, पूजा, शील एवं उपवास इन चार कर्तव्यों का अनुपालन कर सकें। जीवन यापन के लिए अति आवश्यक द्रव्य या धन का उपार्जन करने के लिए प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ स्वामी ने षट्कर्मों का उपदेश किया :
असि, मसि, कृषि, शिल्प, विद्या एवं वाणिज्य वर्तमान युग के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी ने इसी भावना के अनुरुप उद्बोध दिया।
'ऋषि बनो या कृषि करो' यद्यपि ये षट्कर्म सावध हैं किन्तु जीवन यापन के लिए अनिवार्य घटक हैं। अतएव श्रावक विषः गर्भक इन दिगामें करें तथा अपना उपयोगी आत्मोन्नति रूप धर्म में लगाएं, यही मेरा लक्ष्य है। इन श्रावकों को वास्तु दोषों के निमित्त से निराकुलता हो तथा वे अपना उपयोग सत्कार्यों में लगा सकें, इसी भावना से इस ग्रंथ की रचना की गई है।
तमिल ग्रंथ कुरल काव्य में महान आचार्य श्री ऐलाचार्य (तिरुवल्लुवर) का कथन है कि -
यत्र धर्मस्य साम्राज्यं प्रेमाधिक्यञ्च दृश्यते। तद्गृहे तोषपीयूषं सफलाश्च मनोरथाः।।
- कुरल 5/5 जिसके घर में स्नेह एवं प्रेम का निवास है, जिससे धर्म का साम्राज्य है, वह सम्पूर्णतया संतुष्ट रहता है, उसके सब उद्देश्य सफल होते हैं।
इसी भावना को ध्यान में रखकर निर्माण की गई वस्तु श्रेयस्कर है। वही घर अथवा आलय है, अन्य रचनाएं तो तृणवत् त्याज्य हैं।
किसी भी गृहस्थ का आवासगृह बनाने का लक्ष्य यह होना चाहिए कि उसके निवास कर्ता सुख, समाधान, संतोष के साथ जीवन यापन करें तथा धर्माचरण करते हुए मुनि-दान परंपरा का निर्वाह करें। श्रावकों का जीवन विवेक एवं श्रद्धा पर आधारित होना चाहिए।
प्रस्तुत रचना में रसोईघर, स्नानगृह, शौचालय, पुष्प वाटिका, वृक्षारोपण, कपरखनन, कृषि, उद्योग इत्यादि विषयों पर वास्त संबंधी संकेत दिए गए हैं। इनके लेखन का मूल उद्देश्य सावद्य पोषण नहीं है। बल्कि श्रावकों के जीवन में निराकुलता तथा देवपूजा, गुरुभक्ति आदि का समावेश ही है। कुंए का