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वास्तु विज्ञान का प्रारम्भ
वास्तु विज्ञान का प्रारम्भ मानव सभ्यता के प्रारम्भ से ही माना जाता है। जैनागम में युग परिवर्तन की व्यवस्था काल भेद से स्पष्ट की गई है। प्रत्येक युग में छह काल होते हैं जिनके नाम उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी काल में उतरते या चढ़ते चक्र से दर्शाए जाते हैं।
काल
प्रथम
द्वितीय
तृतीय
चतुर्थ
पंचम
षष्ठम
उत्सर्पिणी काल
अवसर्पिणी काल
दुखमा दुखमा
सुखमा सुखमा
दुखमा
सुखमा
दुखमा सुखमा
सुखमा दुखमा
सुखमा दुखमा
दुखमा सुखमा
सुखमा
दुखमा
सुखमा सुखमा
दुखमा दुखमा
वर्तमान काल अवसर्पिणी काल श्रेणी में पंचम अर्थात् दुखमा काल है ! प्रथम काल अर्थात् सुखमा सुखमा, द्वितीय काल अर्थात् सुखमा तथा तृतीय काल सुखमा दुखमा में भोगभूमि की व्यवस्था होती है। मनुष्य पुण्यशाली तथा शांत परिणामी होते हैं। उनकी सभी आवश्यकत्ताओं की पूर्ति कल्पवृक्षों से होती है। ये कल्पवृक्ष वनस्पत्तिकाय के न होकर पृथ्वीकाय के होते हैं। इनके दस भेद हैं
वास्तु चिन्तामणि
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1. पानांग (अन्य नाम मद्यांग) 2. तूर्यांग
4. वस्त्रांग
7. दीपांग
10. सेजांग
3. भूषणांग 5. भोजनांग 6. आलयांग 8. भाजनांग 9.
मालांग
महापुराण के नवम् अध्याय के 37 से 39 वें श्लोक में वर्णित है कि आलयांग जाति के कल्पवृक्ष स्वस्तिक एवं नन्द्यावर्त आदि सोलह प्रकार के रमणीक दिव्य भवन भोग भूमि के मनुष्यों को प्रदान करते हैं।
सभी कल्पवृक्ष अपने नाम के अनुरूप वस्तुएं मनुष्यों को कामना मात्र से उपलब्ध करा देते हैं। भोगभूमि में पुण्य की प्रबलता होने से पुरुषार्थ की