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वास्तु चिन्तामणि
विराट् विश्व में प्राणियों के लिए करने योग्य कुछ भी नहीं है? स्याद्वादमयी जिनवाणी का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट होता है कि प्राणियों के द्वारा पूर्वकृत कर्म ही वर्तमान में तदनुरूप सामग्री प्राप्त कराता है। सभी प्राणी अपने-अपने कर्मों का फल आगामी काल में पाते ही हैं। कोई कर्म निष्फल नहीं जाता। ऐसी परिस्थिति में मनुष्य को अनकल रग़ प्रतिकूल वास्तु या आवास गृह आदि संरचनाओं का मिलना भी पूर्वोपार्जित कर्म फल के अनुरूप होता है। वर्तमान में प्राप्त सामग्री को मनुष्य अपने पुरुषार्थ के द्वारा प्रतिकूल से अनुकूल करता है, जबकि विपरीत पुरुषार्थ से अनुकूलता भी प्रतिकूलता में परिवर्तित हो जाती है।
__वास्तु विज्ञान में ऐसी ही पुरुषार्थ क्रियाओं का विस्तृत विवेचन किया गया है जिनसे यह ज्ञात होता है कि उपलब्ध वास्तु संरचना हमारे लिए हितकर है अथवा नहीं। साथ ही यह भी उपाय जानना आवयक है कि वास्तु में प्रतिकूल निर्मित संरचना को कैसे अनुकूल किया जाए। इस विज्ञान में वास्तु के निर्माण के पूर्व भूमि परीक्षण करके भूमि चयन करना भी निर्देशित किया जाता है, ताकि उस पर निर्मित वास्तु संरचना अनुकूल सिद्ध हो। इस शास्त्र में विवेचित सिद्धान्तों एवं निर्देशों को अपनाकर क्षेत्र, भवन, प्रसाद, महल, जिनालय, धर्मशाला, उद्योग, व्यापारिक भवन इत्यादि को प्रतिकूल से अनुकूल में परिवर्तित किया जा सकता है। वास्तु संरचनाओं को अजीब समझकर निष्क्रिय समझना ठीक वैसा ही है जैसा कि प्रतिष्ठित जिन प्रतिमा को साधारण पाषाण खण्ड के समकक्ष समझना। निष्कर्ष यह है कि इस शास्त्र की उपयोगिता तभी है, जब आप कर्मफलानुसार प्राप्त वास्तु संरचनाओं को विज्ञान सम्मत इस शास्त्र से उद्यम करके अपने अनुकूल बनाने का सुकर्म करें तथा अपना जीवन सुखमय बनाएं। यह निश्चय जानिए कि सुखमय जीवन होने पर ही निराकुल होकर धर्माराधना आदि शुभकर्म किये जा सकते हैं। गृह कलह, धनहानि, विकलांगता, भीषण दीर्घरोगादि से ग्रस्त व्यक्तियों का मन धर्माराधना में लगना हथेली में राई जमाने सदृश अत्यंत दुरूह कार्य है। अतएव यह उपयुक्त है कि वास्तु निर्माण इस प्रकार किया जाए कि वह धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थों को करने में सहायक हो।