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वास्तु चिन्तामणि
सम्पादकीय निवेदन
परम पूज्य गुरुवर आचार्य श्री 108 प्रज्ञाश्रमण देवनन्दि जी महाराज की लेखनी से इस अमूल्य ग्रन्थ की रचना इस युग की अद्वितीय कृति है। इस ग्रन्ध में वास्तु शास्त्र से सम्बंधित लगभग सभी विषयों का उचित समावेश किया गया है। इस ग्रन्थ की उपयोगिता अत्यंत विशद है। आश्चर्य है कि वर्तमान में इस विषय पर अत्यल्प सामग्री उपलब्ध है। परम पूज्य गुरुवर के द्वारा रचिन यह ग्रन्थ इस दिशा में महत्वपूर्ण तो है साथ ही उपयुक्त दिशा निर्देशक भी है।
स्वाभाविक रुप से पाठकों के मन में यह विचार उत्पन्न हो सकता है कि मुनि श्री को मात्र आत्मा से संबंधित ज्ञान का लक्ष्य रखकर ही ग्रन्थ-रचना करनी चाहिए। साधुओं को गृहस्थों के मकान आदि से रुचि रखने का क्या प्रयोजन है? वास्तव में साधुओं एवं श्रावकों (सद्गृहस्थों) का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। साधु जीवन गृहस्थ श्रावकों के बिना चलना असंभव है। आहार दान की क्रिया श्रावकों द्वारा ही सम्पन्न की जाती है। औषधिदान, शास्त्रदान आदि भी श्रावकों के द्वारा ही साधुओं को दिये जाते हैं। साधुओं को विहार की व्यवस्था भी सामान्यतया श्रावक ही करते हैं। श्रावक का यह कर्तव्य है कि वह धर्म मार्ग पर आरुढ़ मुनियों की उपासना एवं सेवा करे तथा आहारदानादि क्रियाओं के द्वारा संयममार्ग पर आरूढ़ महाव्रती साधुओं, आर्यिकाओं, क्षुल्लक, क्षुल्लिकाओं तथा गृहत्यागी व्रतियों को अपने व्रत पालन में सहायक बनें।
जब श्रावकों का साधुओं से अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है तो साधुओं की भी श्रावकों पर असीम अनुकम्पा हो। वे अपने उपदेशों द्वारा श्रावकों को धर्म मार्ग पर चलने के लिए सत्प्रेरणा करें। कहा भी है -
'न धर्मो धार्मिकैर्विना' धर्म, धार्मिकों के बगैर अस्तित्व में नहीं रह सकता। अतएव ऐसी परिस्थिति में धर्मप्राण श्रावकों के लिए मार्ग का उपदेश धर्मगुरु मुनि ही करते हैं। यदि श्रावक कलह, दरिद्रता, रोग, विकलांगता, मानसिक विक्षिप्तता इत्यादि दुखों से दुखी होंगे तो करुणामयी गुरुवर का ऐसा उपदेश देना आवश्यक है, जिसके अनुसरण से गृहस्थ निराकुल रुप से अपना गृहस्थ जीवन