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वास्तु चिन्तामणि
तत्वाभ्यास: स्वकीयरतिरमलं दर्शनं यत्र पूज्यं । तद्गार्हस्थ्यं बुधानामिततरदिह नितात्यागस्तदाद्य स्मृतः।।
- प.प. वि.अ. । ग. 23 जिस गृहस्थ अवस्था में जिनेन्द्र प्रभु की आराधना की जाती है, निग्रंथ गुरुओं के प्रति विनय, धर्मात्माओं के प्रति प्रीति एवं पत्तत्व, पात्रों को दान, आपत्तिग्रस्त पुरुषों को दया बुद्धि से दान, तत्वों का परिशीलन, व्रतों व गृहस्थ धर्म से प्रेम तथा निर्मल सम्यग्दर्शन का धारण करना आदि सब कार्य किए जाते हैं, वही गृहस्थावस्था विद्वानों के द्वारा सराहनीय है।
___ इन लक्षणों को धारण करने वाले सद्गृहस्थ वास्तु दोषों के परिणामों से पीड़ित न हों, इस भावना को रखकर ही इस कृति की रचना की गई है।
इस ग्रन्थ के लेखन कार्य में सर्वाधिक समय, जगत के उद्धारकर्ता, तारनहार, प्रभु 1008 चिन्तामणि पार्श्वनाथ स्वामी के श्री चरण सानिध्य में उनके सर्वमान्य अतिशय क्षेत्र श्री कचनेर जी (औरंगाबाद महा.) में व्यय किया। गणेशपुर एवं श्रीरामपुर (दोनों जि. अहमदनगर महा.) में भी पर्याप्त लेखन कार्य सम्पन्न हुआ। जनवरी से दिसंबर 1995 की कालावधि में इसका कार्य पूर्ण हुआ।
किसी भी कार्य को सफलता पूर्वक पूर्ण करने के लिए अनेक कारकों की आवश्यकता होती है। हमारी शिष्या विदुषी आर्यिका श्री 105 सुमंगलाश्री ने इस ग्रंथ के लेखन कार्य में निष्ठापूर्वक, समयानुकूल, पूर्ण सहकार्य किया है। तदर्थ उन्हें हमारा पूर्ण आशीर्वाद है। वे अपना उपयोग इसी तरह ज्ञानाराधना में लगाएं तथा संयम मार्ग पर दृढ़ता पूर्वक आचरण करते हुए आत्म सिद्धि की प्राप्ति करें।
लेखन कार्य करना जितना दुरुह होता है, ग्रन्थ की समायोजना एवं सम्पाटन का कार्य उससे भी अधिक दुरुह होता है। इसके सम्पादन की प्रमुख भूमिका में देव- शास्त्र-गरु के अनन्य आराधक, विद्वत्ता की भूमिका का निर्वाह करने वाले श्री नरेन्द्र कुमार जी जैन बडजात्या ने इस कार्य के सम्पादन का भार संभालकर जटिल कार्य को सहजतम बना दिया है। अपनी परिवारिक व्यस्तताओं में रहने के बावजद ग्रन्थ को प्रकाशित करवाने में अहम भूमिका निर्वाह की हैं में श्री 1008 चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान से उनके सुख समृद्ध जीवन की मंगल कामना करता हुआ उन्हें शुभाशीर्वाद प्रदान करता हूं। • साथ ही गुरु भक्त श्री विनोद जोहरापुरकर जी आर्किटेक्ट को भी मेरा शुभाशीर्वाद है। इन्होंने इस वास्तु चिन्तामणि ग्रन्थ के लिए सभी चित्रों को