________________
वास्तु चिन्तामणि
सभी कार्य सहज ही सिद्ध होते जाते हैं। निर्मित वास्तु से अनायास ही सभी अनुकूलताएं प्राप्त होती जाती हैं। काष्ठ घास से निर्मित वास्तु तथा तात्कालिक कार्य के अनुरुप निर्मित अस्थायी निर्माणों के लिए यह विचार आवश्यक नहीं है। वास्तु का निर्माण हो जाने के उपरांत श्री जिनेन्द्रदेव की आराधना-पूजा पूर्वक वास्तु शान्ति विधान अवश्य ही कराना चाहिए, तदुपरांत ही गृहप्रवेश करना चाहिए।
वास्तु शास्त्र के इस ग्रंथ वास्तु चिन्तामणि में संदर्भित विषयों का पठन आपके लिए विशेष लाभदायक होगा फिर भी प्रसंगवश में कुछ संकेत यहां देना उपयुक्त समझता हूं :
2.
1. गृह वास्तु के अग्रभाग की अपेक्षा पृष्ठभाग कुछ चौड़ा एवं ऊँचा होना श्रेयस्कर है।
दुकान वास्तु के अग्रभाग की अपेक्षा पृष्ठभाग सकरा होना आवश्यक है एवं आगे ऊँची व मध्य में समान होना अच्छा है।
3.
4.
5.
6.
7.
-
8.
9.
10.
वास्तु का मुख्य द्वार पूर्व में रखना सर्वश्रेष्ठ है।
रसोईघर आग्नेय दिशा में रखना सर्वोत्तम है।
भोजन कक्ष पश्चिम में रखें।
धनागार उत्तर दिशा में रखें।
चैत्यालय अथवा देवस्थान ईशान में बनाएं।
आंगन टेढ़ा-मेढ़ा अथवा षट्कोण, त्रिकोण न बनाएं।
धरातल समतल रखें।
XXII
वास्तु पुरुष चक्र सिद्धांत के अनुरुप वास्तु पुरुष के केश, मस्तक, हृदय तथा नाभि स्थान जहां आएं, वहां स्तम्भ न बनाएं।
-
इस प्रकार के नियमों का परिपालन यद्यपि प्रथम दृष्ट्या कठिन प्रतीत होता है, फिर भी अन्ततः श्रेयस्कर फल प्रदायक होने के कारण अनुकरणीय है। ऐसी वास्तु में निवास करने वाले गृहस्थ नैतिक जीवन के धारक होते हैं तथा धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थो को सिद्ध करने में समर्थ होते हुए अन्ततः मोक्ष पुरुषार्थ को निश्चय ही प्राप्त करते हैं। सद्गृहस्थों को उनके कर्तव्यों के पालन करने में उपयुक्त वास्तु सहायक बने, इसी भावना से ग्रंथ रचना का यह कार्य सम्पन्न किया है। सद्गृहस्थों के प्रमुख लक्षणों के विषय में आचार्य पद्मनन्दि कहते हैं
आराध्यन्ते जिनेन्द्रा गुरुषु च विनति धार्मिकः प्रीतिरुच्चैः । पात्रेभ्योदानमापन्निहत्तजन कृते तच्च कारुण्य बुध्या । ।