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________________ सप्तनिका उपदेश- कइवयदिणाणि ठिच्चा तत्तो सो पुणवि विहरि लग्गो। नेगरिकत्तम्मि ठिई चिरं समाहूण सोहकरी ॥२६।। तत्तो दुरंतपतंगलक्खणा तक्खणाउ ते मिलिया। दुललियायारमुणीण चक्कवाला महाबाला ॥२७॥ जई तुब्भे इत्य पुरे भयवं गुणवंतयाण सिरमुणिणो । इक्कं कुणह पसन्ना वासारत्तस्स चउमासं ।।२८।। Ke तो तुम्हाऽऽणत्तीए बहुआ चेइयाण तिप्पत्ती! संपञ्जइ किन्नई सड्ढगेहि अम्हेहि तह महिमा ।।२९।। युग्मम् ।। 1१३४॥ Id इय दवलिंगिवयणाइन्नणओ भणियमित्य सूरीहिं । जइवि हु जिणालयाणं सेणी सिवर्गहनिस्सेणी ॥३०॥ तहवि हु सावजमिमं मम निम्ममवित्तिवत्तिणो समणा । वायामित्रोणवि नाहमेयमिह आयरामि अहो ।।३१।। युग्मम्।। एवं पवयणसार निस्संक तेण बागरतेण । कुवलयपहेण गोयम समलियं तिस्थयरगोत्तं ।। ३२।। तेणेगभवावसेसीकओ महादुत्तरोऽबि भवजलही। अह तेण तत्थ दिट्ठो असमंजससंघ मेलावो । ३३।। लिगिणियालिंगीहि मिलित्तु एगस्थ तालिया दिन्ना । हहो इमस दिटुं पंडिच्चं सच्चवाइत्तं ।।३४।। एवं पयंपिरेहि निच्छ धुणिरहि अप्पचरियस्स । कुवलयपहस्सा विहियं सावजायरियनामति ॥३५।। x नीयं च पसिद्धोए घिद्धी संगो असाहवरगम्सा ! तहवि हु सो नवि रूसाइ तूसइ विहिएऽवि हिए ॥३६।। अह तेसिमणायाराण तत्थ लिंगावजीविसाहण। आइन्नो पावेणं संपन्नो आगमवियारो ॥३७॥ । सड्ढाणमसम्भावे भावेणं साहुणोऽवि जिणभुवणं । पडिजागरंति खंडियपडियं च समुद्धरंति तहा ॥३८॥ अन्नमवि चेइयाणं कल्लं सज्जतयाण समणाणं । नत्यि किर कोइ दोसो कोसो सुकयस्स चेव भवे ।।३९।। 11१३४
SR No.090524
Book TitleUpdeshsapttika Navya
Original Sutra AuthorKshemrajmuni
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages486
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size12 MB
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