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यह सुनकर कैकेयी ने एक वृहद् रथ पर चढ़कर अश्व की बल्गा अपने हाथों में ले ली । कारण वह बुद्धिमती तो थी ही साथ ही बहत्तर कलाओं में भी निपुण थी । तब दशरथ भी कवच धारण कर पीठ में तुणीर कसा और हाथ में धनुष लेकर रथ पर चढ़ गए । यद्यपि उस समय वे अकेले ही थे, फिर भी शत्रुओं को तृणवत् समझा । चतुर कैकेयी हरिवाहन आदि समस्त राजाओं के सम्मुख समयानुसार सवेग उस रथ को ले जाने लगी और अखण्ड पराक्रमी दशरथ द्वितीय आखण्डल की तरह एक-एक कर शत्रुओं का रथ खण्डित करने लगे । इस प्रकार समस्त राजाओं को पराजित कर दशरथ ने द्वितीय पृथ्वी-सी कैकेयी से विवाह किया । दशरथ ने अपनी नवपरिणीता से कहा, 'देवी, तुम्हारे सारथ्य से मैं सन्तुष्ट हुआ हूं अत: तुम कोई वर मांग लो ।' कैकेयी बोली, 'स्वामी, समय आने पर मैं वह वर आप से मांगूगी। अभी वह आपके ही पास धरोहर की तरह रक्षित रहे ।' राजा दशरथ ने यह स्वीकार कर लिया । ( श्लोक १६३ - १६९ ) शत्रुओं से जिस सेना को जीता था उस सेना और श्री जैसी कैकेयी सहित दशरथ राजगृह नगर में गए और जनक अपनी राजधानी मिथिला लौट गए । समयज्ञ ही बुद्धिमान होते हैं । वे जहाँ-तहाँ जैसे-तैसे रूप में नहीं रहते । ( श्लोक १७० - १७१) राजा दशरथ मगध जीतकर राजगृह में ही रहने लगे, रावण के भय से अयोध्या नहीं लौटे । अपराजिता आदि रानियों को राजगृह में ही बुलवा लिया । पराक्रमी पुरुषों का राज्य सर्वत्र ही होता है । अपनी रानियों के साथ क्रीड़ा करते हुए बहुत दिनों तक वे राजगृह में ही रहे । राजाओं को स्व अर्जित भूमि से ही प्रेम होता है ।
( श्लोक १७२ - १७४)
एक दिन रानी अपराजिता ने बलराम के जन्म सूचक हस्ती, सिंह, चन्द्र, और सूर्य ये चार स्वप्न देखे । उसी समय कोई महद्धिक देव ब्रह्म देवलोक से च्युत होकर जिस प्रकार हंस कमल वन में जाता है उसी प्रकार अपराजिता की कुक्षी में आया । यथा समय अपराजिता ने पुण्डरीक श्वेत कमल की तरह श्वेत वर्ण युक्त, पुरुषों में पुण्डरीक, अग्नि कोण के दिग्गज से सम्पूर्ण लक्षण युक्त एक पुत्र को जन्म दिया । ( श्लोक १७५ - १७७)