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सम्पन्न की।
(श्लोक १४६-१४८) दशरथ मर गया समझ कर विभीषण जनक को बिना मारे ही लङ्का लौट गया। सोचा, अकेला राजा जनक क्या कर सकता
(श्लोक १४९) मिथिला और इक्ष्वाकु वंश के राजा जनक और दशरथ समान स्थिति में पड़ जाने से मित्र बन गए और साथ-साथ भ्रमण करने लगे। पर्यटन करते हुए वे उत्तरापथ में गए। वहाँ कौतुकमङ्गल नगर के राजा की शुभमती रानी से उत्पन्न द्रोणमेघ की बहिन बहत्तर कलाओं में निपूणा कैकेयी के स्वयंवर की बात सुनी। यह सुनकर वे भी कौतुकमङ्गल नगर जाकर स्वयंवर सभा में जहाँ हरिवाहन आदि राजा बैठे थे उनमें कमल के मध्य हंस की तरह बैठ गए।
(श्लोक १५०-१५३) कन्या-रत्न कैकेयी रत्नालङ्कारों से विभूषित होकर साक्षात् लक्ष्मी की तरह सभा-भवन में आई। प्रतिहारिणी के हाथों का सहारा लिए प्रत्येक राजा को देखती हुई जिस प्रकार चन्द्रलेखा नक्षत्रों का अतिक्रमण करती है उसी प्रकार अनेक राजाओं को वह अतिक्रमण कर गई। अनुक्रम-से गङ्गा जैसे समुद्र के निकट जाती है उसी प्रकार वह भी राजा दशरथ के पास जाकर लङ्गर डाली हई नौका की तरह खड़ी हो गई। उसकी देह रोमांचित हो गई अतः प्रसन्नता के साथ अपनी भुजाओं-सी वर माला को दशरथ के गले में डाल दी।
(श्लोक १५४-१५७) हरिवाहन आदि राजा इसे अपना अपमान समझ कर क्रोध में प्रज्ज्वलित होकर कहने लगे-'जीर्ण-शीर्ण कपड़े पहने इस एकाकी भिक्षक को कैकेयी ने अपना पति चुना है; किन्तु हम यदि उसका अपहरण करें तो देखते हैं वह किस प्रकार कैकेयी की रक्षा करेगा।'
(श्लोक १५८-१५९) इस प्रकार कहते हुए क्रुद्ध बने वे अपनी-अपनी छावनी में गए और अस्त्र धारण कर युद्ध के लिए प्रस्तुत हो गए। राजा शुभमति ने दशरथ का पक्ष लिया और उत्साह पूर्वक अपनी चतुरंगिनी सेना तैयार करवाई। उस समय एकाकी दशरथ ने कैकेयी से कहा, 'प्रिये, तुम यदि मेरा सारथ्य करो तो मैं इन शत्रुओं को विनष्ट कर डालू।'
(श्लोक १६०-१६२)