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[87 देकर उच्चासन पर बैठाया । फिर उन्हें पूछा - 'आप अभी कहां से आ रहे हैं ?' ( श्लोक १३४ - १३६)
नारद ने कहा - 'पूर्व विदेह की पुण्डरीकिनी नगरी में सुरा - सुर मिलकर श्री सीमन्धर स्वामी का निष्क्रमणोत्सव कर रहे थे । वही देखने मैं वहां गया था । उस उत्सव को देखकर तीर्थनाथ की वन्दना के लिए मेरु पर्वत पर गया। वहां से लङ्का जाकर शान्त गृहस्थ शान्तिनाथ को नमस्कार कर रावण की सभा में गया । वहां के एक नैमित्तिक को बोलते सुना कि जनक राजा की कन्या के लिए आपके पुत्र के हाथ से रावण की मृत्यु होगी । यह सुनकर आप दोनों को मारने के लिए विभीषण कृतसंकल्प हुआ है । वह शीघ्र ही यहां आएगा । स्वधर्मी होने कारण आप पर मेरा प्रेम है । इसीलिए शीघ्रातिशीघ्र यह बताने के लिए यहां चला आया ।' (श्लोक १३७ - १४१)
सब कुछ सुनकर दशरथ ने नारद की पूजा कर उन्हें बिदा दी । नारद ने वहां से जनक राजा के यहां जाकर सारा वृत्तान्त कह सुनाया । ( श्लोक १४२) तब दशरथ ने अपने मन्त्रियों को बुलाकर सारी वस्तुस्थिति उन्हें समझाई और उन्हीं पर राज्यभार सौंपकर स्वयं योग का रूप धारण कर अरण्य की ओर चले गए । ( श्लोक १४३ ) शत्रु को छलने के लिए मन्त्रियों ने दशरथ की एक लेप्यमय मूर्ति बनवाकर राजप्रासाद में एक अन्धकारमय स्थान में रख दी । ( श्लोक १४४ )
जनकराजा भी दशरथ की तरह योगी वेष धारण कर अरण्य में चले गए । उनके मन्त्रियों ने भी जनक की लेप्यमय मूर्ति बनवाकर प्रासाद के एक अन्धकारमय स्थान रखवा दी । दशरथ और जनक गुप्त रूप में पृथ्वी पर विचरण करने लगे ।
(श्लोक १४४-१४५)
क्रुद्ध विभीषण अयोध्या आया और अन्धकार में रखी लेप्य मूर्ति का मस्तक खड़ग से काट डाला । इस घटना ने सारे नगर में कोलाहल मचा दिया और अन्तःपुर में चारों ओर रोना-धोना मच गया । अङ्ग रक्षकों सहित सामन्त राजगण वहाँ उपस्थित हुए और मन्त्रविद् मन्त्रियों ने राजा की सब प्रकार से अन्त्येष्टि क्रिया