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[85 निकाल दिया।
(श्लोक १०२) सोदास सिंहरथ पर आक्रमण करने निकला। सिंहरथ भी उससे युद्ध करने निकला। पथ पर दोनों सेना के मिलते ही युद्ध भारम्भ हो गया। सिंहरथ के युद्ध में पराजित होने पर सोदास ने उसे बन्दी बना लिया; किन्तु तदुपरान्त उभय राज्य उसे देकर मनिव्रत ग्रहण कर लिया।
(श्लोक १०३-१०५) सिंहरथ के ब्रह्मरथ नामक एक पुत्र हुआ। तदुपरान्त क्रमशः चतुर्मुख, हेमरथ, शतरथ, उदयपृथु, वादिरथ, इन्दुरथ, मान्धाता, वीरसेन, प्रतिमन्यु, पद्मबन्धु, रविमन्यु, बसन्ततिलक, कुवेरदत्त, कून्थ, शरभ, द्विरथ, हिरण्यकशिपु, पूजस्थल, काकूस्थल व रघ बादि राजा हुए। उनमें कोई-कोई मोक्ष गया, कोई-कोई स्वर्ग । तदुपरान्त अयोध्या में शरणार्थियों को शरण देने वाला और बन्धुओं को अऋण करने वाला अनरण्य नामक एक राजा हुए। उनकी रानी पृथ्वी के गर्भ से अनन्तरथ और दशरथ नामक दो पुत्र हुए।
(श्लोक १०६-११२) अनरण्य के सहस्रकिरण नामक एक मित्र था। रावण के साथ युद्ध में पराजित होने पर उसे वैराग्य हो गया। अतः उसने दीक्षा ले ली। मित्रता के कारण अनरण्य के मन में भी वैराग्य उत्पन्न हो गया। अत: उसने भी स्वपुत्र दशरथ को राज्य देकर अपने ज्येष्ठ पुत्र सहित दीक्षा ग्रहण कर ली। उस समय दशरथ केवल एक महीने का था । काल प्राप्त होने पर अनरण्य मुनि मोक्ष गए और अनन्तरथ तीव्र तपस्या करते हुए पृथ्वी पर विचरण करने करने लगे.
(श्लोक ११३-११५) राज्य करते-करते क्षीरकण्ठ दशरथ ने तरुणाई और पराक्रम एक साथ प्राप्त किया। इसलिए नक्षत्रों में जैसे चन्द्रमा, ग्रहों में सूर्य, पर्वतों में मेरु सुशोभित होता है उसी प्रकार वे भी राजाओं में सुशोभित होने लगे। दशरथ जब स्वयं राज्य का संचालन करने लगे तब परचक्र काल में लोगों पर जो उपद्रव होता था वह आकाशकुसुम की भांति दूर हो गया। वे याचकों की इच्छानुसार द्रव्य
और अलङ्कारादि देते थे इसलिए वे मध्यम आदि दस प्रकार के कल्पवृक्षों के अनुक्रम में ग्यारहवें कल्पवृक्ष गिने जाते थे। वंशपरम्परागत अपने साम्राज्य के अनुसार वे अहंतु धर्म का सर्वदा