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कर दिया । सिंहनी क्या हाथियों की हत्या नहीं करती ?
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( श्लोक ७१-७४)
उत्तरापथ के राजाओं को जीतकर नहुष अयोध्या लौट आया । वहाँ आकर सुना कि सिंहिका ने दक्षिणापथ के राजाओं को पराजित कर विताड़ित कर दिया है तो सोचने लगा मुझसे पराक्रमी के लिए भी जो कार्य दुष्कर था उसे सिंहिका ने किस प्रकार कर डाला ? इससे स्पष्टतः इसकी धृष्टता प्रकट होती है । उच्च कुलजात स्त्रियों के लिए ऐसा करना उचित नहीं है । इससे लगता है यह स्त्री सती नहीं है । सती स्त्रियों के लिए तो पति ही देवता होते हैं । इसलिए वह पति सेवा छोड़कर दूसरा काम नहीं करती । ऐसा साहसिक कार्य करना तो बहुत दूर की बात है । ऐसा विचार आने से अत्यन्त प्रिय होते हुए भी खण्डित प्रतिमा की तरह उन्होंने उसका परित्याग कर दिया । ( श्लोक ७५-७८ ) एक समय नहुष राजा को दाहज्वर हुआ । सौ-सौ उपचार करने पर भी वह दुष्टशत्रु की भांति शान्त नहीं हुआ । उस समय सिंहिका स्व-सतीत्व प्रमाणित करने के लिए और पति की व्याधि दूर करने के लिए जल लेकर उसके पास आई और बोली, 'हे नाथ, आपके अतिरिक्त मैंने यदि किसी पुरुष को नहीं चाहा है तो आपका ज्वर मेरे जल के छींटे से इसी क्षण शान्त हो जाए ।' ऐसा कहकर उसने वह जल नहुष पर छिड़का । उस जल के छिड़कते ही मानो अमृत का स्पर्श हुआ हो इस प्रकार ज्वर शान्त हो गया । देवों ने सती पर पुष्प वर्षा की । राजा ने भी तब उसे ससम्मान ग्रहण कर पूर्व की तरह अपना लिया । ( श्लोक ७९-८३ ) बहुत दिनों पश्चात् राजा नहुष और सिंहिका के सौदास नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । उसके बड़े होने पर उसे सिंहासन देकर नहुष ने मोक्ष प्राप्त करने के लिए उत्तम उपाय रूप दीक्षा ग्रहण कर ली । ( श्लोक ८४-८५) अष्टाह्निका उत्सव का दिन आया । पूर्व की भाँति ही मन्त्रियों ने सौदास के राज्य में पशु हत्या निषिद्ध कर दी । वे सौदास से बोले, 'राजन् आपके पूर्व पुरुष अष्टाका के समय मांस भोजन नहीं करते थे । अतः आप भी मांस नहीं खाएँ ।'
(श्लोक ८६-८७)