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मुनि जमीन पर गिर गए। तब उसने नखरूपी अंकुश से सुकोशल की देह को चर्र से चीर दिया और मरुभूमि की पथिका जिस भाँति तृष्णार्त होकर पानी पीती है उसी प्रकार उनके रक्त को पिया | भिखारिन जैसे तरबूजे को नोच-नोच कर खाती है उसी प्रकार उसने उनका मांस नोच-नोच कर खाया । हस्तिनी जिस प्रकार गन्न े को पीलकर उसका रसपान करती है वैसे ही वह उनकी अस्थियों को दन्तरूपी यन्त्रों से पीलकर उसका रसपान करने लगी । मुनि के हृदय में इसके लिए लेशमात्र भी विकृति उत्पन्न नहीं हुई । बल्कि वे सोचने लगे यह व्याघ्री कर्मों के क्षय में उनकी सहायता कर सहायक ही हुई है ऐसे विचार से उनका शरीर रोमांचित हो गया । मानो उन्होंने रोमांच का वर्म धारण किया है । इस भाँति व्याघ्री का खाद्य बनकर उन्हें उसी अवस्था में केवल ज्ञान प्राप्त हुआ और वे मोक्ष गए। उसी तरह कीर्तिधर मुनि को भी केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ और उन्होंने भी अद्वैत सुख के स्थान रूप मोक्ष को प्राप्त किया । (श्लोक ५८-६५) उधर सुकोशल राजा की पत्नी चित्रमाला ने एक कुलनन्दन पुत्र को जन्म दिया । वह तो जन्म से ही राजा था अतः उसका नाम रखा गया हिरण्यगर्भ । हिरण्यगर्भ जब युवावस्था को प्राप्त हुआ तब मृगावती नामक एक मृगाक्षी के साथ उसका विवाह कर दिया गया । हिरण्यगर्भ के मृगावती की कुक्षी से नहुष नामक पुत्र उत्पन्न हुआ मानो वह द्वितीय हिरण्यगर्भ ही था । ( श्लोक ६६-६८ ) एक दिन हिरण्यगर्भ ने वृद्धावस्था का द्योतक सिर पर एक सफेद केश देखा । उसे देखते ही तत्काल उन्हें वैराग्य हो गया । अत: नहुष को सिंहासन पर बैठाकर विमल नामक मुनि से दीक्षा ग्रहण कर ली । (श्लोक ६९-७० ) नरसिंह नहुष सिंहिका नामक अपनी पत्नी सहित क्रीड़ा करता हुआ अपने पैतृक राज्य का संचालन करने लगा । एक दिन वह उत्तरापथ के राजाओं को जय करने के लिए राज्य छोड़कर रवाना हुआ । नहुष राज्य में नहीं है यह जानकर दक्षिणापथ के राजाओं ने अयोध्या पर अधिकार करने के लिए नगर को घेर लिया । शत्रु तो छलनिष्ठ होते ही हैं । तब सिंहिका पुरुष रूप धारण कर उनके सम्मुखीन हुई और उन्हें पराजित कर विताड़ित