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कणकोदरी के गर्भ में आया। जन्मग्रहण करने के पश्चात् इसका नाम रखा गया सिंहवाहन । सिंहवाहन ने बहत दिनों तक राज्य करने के पश्चात् विमलनाथ प्रभु के तीर्थ में लक्ष्मीधर मुनि से दीक्षा ग्रहण कर ली । दुष्कर तप कर मृत्यु के पश्चात् वह लान्तक देवलोक में देव हुआ। वही वहां से च्यवकर अब तुम्हारी सखी अंजना के गर्भ में आया है। यह पुत्र गुणों की खान, महापराक्रमी, विद्याधरों का राजा, चरम शरोरी और विमलमना होगा।' (श्लोक १६१-१७३)
_ 'अब तुम अपनी सखी के पूर्वजन्म की कथा सुनो-कनकपुर नगर में महापराक्रमियों के शिरोमणि कनकरथ नामक एक राजा थे। उनके कनकोदरी और लक्ष्मीवती नामक दो रानियां थीं। उनमें लक्ष्मोवती श्रद्धालु श्राविका थी। वह गृह-चैत्य में रत्नमय जिन-प्रतिमा स्थापित कर सुबह-शाम दोनों समय उसकी पूजा करती, वन्दना करती। कनकोदरी उससे ईर्ष्या रखती । अतः एक दिन लक्ष्मीवती की जिन-प्रतिमा चोरी कर कड़े में उठाकर फेंक दी। उसी समय जयश्री नामक एक आर्या विहार करती हुई वहां आयीं। उन्होंने कनकोदरी को जिन-प्रतिमा कड़े में फेंकते देख लिया था। वे बोलीं-'तुमने यह क्या किया ? भगवान् की प्रतिमा को वहां फेंक कर तुमने अपनी आत्मा को संसार के अनेक दुःखों का कारण बना लिया।'
(श्लोक १७४-१७९) _ 'साध्वी श्री के यह वचन सुनकर कनकोदरी को पश्चाताप हा। उसने तत्क्षण प्रतिमा को वहां से उठाकर, शुद्ध कर, क्षमा. याचना करते हुए जहां से उस प्रतिमा को लाई थी वहीं ले जाकर रख दिया। उस दिन से वह सम्यक्त्व धारण कर जैन धर्म का पालन करने लगो। अनुक्रम से आयुष्य पूर्ण होने पर वह सौधर्म देवलोक में देवी रूप में उत्पन्न हुई। वहां से च्युत होकर महेन्द्र राजा की कन्या अंजना ने तुम्हारी सखी रूप में जन्म ग्रहण किया है। पूर्व जन्म में अंजना ने जिन-प्रतिमा को अशुद्ध स्थान में फेंक दिया इसलिए उसे ऐसा कष्ट प्राप्त हुआ है। तुमने भी उस जन्म में दुष्कर्म में उसकी सहायता की थी, अनुमोदना की थी, अतः इस समय तुम भी इसके साथ-साथ दुःख पा रही हो; किन्तु उस दुष्ट कर्म का फल अब प्रायः शेष हो गया है। अब तुम लोग इस भव में सुख प्रदान करने वाला जैन धर्म ग्रहण करो। शीघ्र ही अंजना का