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मामा अकस्मात् यहां आकर तुम लोगों को ले जाएगा। थोड़े दिनों पश्चात् ही पति से मिलन होगा।' (श्लोक १८०-१८५)
इस प्रकार अंजना को उसका पूर्व भव सुनाकर सखी सहित उसको जैन धर्म में सूस्थित कर मुनि गरुड़ की भांति आकाश में उड़ गए। इसी बीच उन्होंने वहां एक सिंह को आते देखा । सिंह अपनी पूछ जमीन पर पछाड़ रहा था जैसे वह धरती को विदीर्ण कर देगा। अपनी गर्जना से वह दिशाओं को पूरित कर रहा था। हाथी के खून से लिप्त वह बड़ा विकट लग रहा था। उसके नेत्र दीप की भांति जल रहे थे। उसकी डाढ़े वज्र की तरह दृढ़ थीं। उसके दांत करात की भांति तीक्ष्ण और कर थे। उसकी केशर अग्नि शिखा की तरह उद्दीप्त थी। उसके नाखून लोहे की कीलों की तरह तीक्ष्ण थे । वक्षदेश पर्वत-शिला की भांति कठोर था। उसे अपनी ओर आते देखकर नेत्र नीचे कर वे कांपने लगीं। लग रहा था मानो वे धरती में समा जाना चाहती हैं। भयभीत हरिणी की तरह वे स्तब्ध हो गई। उसी समय उस गुफा के अधीश्वर मणिचल नामक यक्ष ने शरभ रूप धारण कर उस सिंह को मार डाला। फिर स्व-स्वरूप धारण कर अंजना और बसन्तततिलका को प्रसन्न करने के लिए पत्नी सहित अर्हत् का गुणगान करने लगा। अतः अंजना और बसन्ततिलका ने उस स्थान का परित्याग नहीं किया। उसी गुफा में मुनि सुव्रत स्वामी की प्रतिमा स्थापित कर उनकी पूजा करते हुए वे दिन व्यतीत करने लगीं। (श्लोक १८६-१९३)
यथा समय सिंहनी जैसे सिंह को जन्म देती है इसी प्रकार अंजना ने पदतल में वज्र, अंकुश और चक्र चिह्न युक्त एक पुत्र को जन्म दिया। बसन्ततिलका ने हर्षित होकर अग्निजलादि लाकर उसका प्रसूति कर्म सम्पन्न किया। पुत्र को गोद में लेकर दुःखित अंजना अश्र प्रवाहित कर यहाँ तक कि उस गुफा को क्रन्दनमय कर विलाप करने लगी-'हाय पुत्र, इस घोर वन में तेरा जन्म होने के कारण मैं किस प्रकार से तेरा जन्मोत्सव करूँ ?' (श्लोक १९४-१९७)
उस विलाप से आकृष्ट होकर प्रतिसूर्य नामक एक विद्याधर उनके निकट आया और मधुर कण्ठ से उनके दुःख का कारण पूछा । सखी बसन्ततिलका ने अश्रुसिक्त कण्ठ से अंजना के विवाह से लेकर पुत्र जन्म तक की कथा सुनाई। वह विवरण सुनकर उस विद्याधर के