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मेरे अपराध पर विचार किए बिना ही दण्ड दे दिया। सासू केतुमतीजी, आपने अच्छा ही किया, कुल को कलङ्कित होने से बचा लिया। पिताजी, आपने भी सम्बन्धियों के भय से ठीक ही विवेचना की। दुःखी लड़कियों के लिए माँ आश्रय रूप होती है; किन्तु माँ, तुमने भी पिताजी की इच्छानुसार मेरी उपेक्षा की। भाई, तुम्हारा तो पिताजी के रहते दोष ही क्या है ? हे प्रिय, आपके दूर रहने से सभी मेरे शत्र हो गए हैं। सर्वथा पतिहीना एक दिन भी जीवित नहीं रहती; किन्तु अभागियों में प्रमुख मैं जीवित हूं।
(श्लोक १५२-१५७) इस प्रकार विलाप करती हई अंजना उसकी सखी उस गुफा में ले गई जहाँ चारण मुनि अमितगति ध्यान कर रहे थे। चारण मुनि को नमस्कार कर विनीतभाव से वे उनके सम्मुख बैठ गई। ध्यान समाप्त होने पर दाहिना हाथ उठाकर मूनि ने मनोरथपूर्ण
और कल्याणकारी, आनन्द प्रदान करने वाली धारा की तरह 'धर्मलाभ' का आशीर्वाद दिया।'
(श्लोक १५८-१६०) ___ तब बसन्ततिलका ने उन्हें पुनः प्रणाम कर अंजना की सारी दुःख कथा सुनाई। तदुपरान्त पूछा-'भगवन् ! अंजना के गर्भ में कौन आया है ?' मुनि ने उत्तर दिया
'इस भरत क्षेत्र में मन्दर नामक एक नगर है। वहां प्रियनन्दी नामक एक वणिक रहता था। उसकी जया नामक पत्नी से चन्द्र-सा कल्पनिधि और दम (इन्द्रिय दमन) प्रिय दमयन्त नामक एक पुत्र हुआ। एक बार वह उद्यान में खेलने गया। वहां उसने एक स्वाध्यायलीन एक मुनिराज को देखा। उसने उनसे शुद्ध मन से धर्म श्रवण किया। प्रतिबोध पाकर उसने सम्यक्त्व के विविध प्रकार के नियम ग्रहण किए। तभी से वह मुनियों के योग्य-दान देने लगा। वह तप और संयम में ही एकमात्र निष्ठा रखता था । अतः कालक्रम से मृत्यु के पश्चात् परमाद्धिक देव के रूप में उत्पन्न हुआ। वहां से च्युत होकर वह जम्बूद्वीप के मृगाङ्कपुर के राजा हरिश्चन्द्र की पत्नी प्रियंशु लक्ष्मी के गर्भ से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ । उसका नाम रखा गया सिंहचन्द्र । सिंहचन्द्र जैन धर्म स्वीकार और पालन कर मृत्यु के पश्चात् देव रूप में उत्पन्न हुआ। वहां से च्युत होकर वैताढ्य पर्वत के वरुण नामक नगर के राजा सुकण्ठ की रानी