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इस प्रकार तिरस्कार कर केतुमती ने निर्दया राक्षसी की तरह अपने अनुचरों को आदेश दिया - इसको ले जाकर इसके पितृगृह छोड़ आओ । ( श्लोक १३० ) अनुचर अंजना और बसन्ततिलका को यान में बैठाकर महेन्द्र नगर ले गए और नगर से बाहर उन्हें यान से उतार कर असिक्त नेत्रों से माँ की तरह अंजना को प्रणाम कर उससे क्षमा माँगी और चले गए। कहा भी गया है, उत्तम सेवक स्वामी के परिवार के साथ स्वामी के जैसा ही व्यवहार करते हैं ।
( श्लोक १३१-१३२) उसी समय सूर्य अस्त हो गया । मानो अंजना का दुःख देख नपा सकने के कारण वह अस्त हो गया हो। सचमुच, सत्पुरुष 'सज्जनों की विपत्ति नहीं देख सकते । श्लोक १३३) जैसे-जैसे रात गहरी होती गई, उल्लू घर्र-घर्र शब्द करने लगे, शृगाल चिल्लाने लगे, सिंह गर्जन करने लगे, शिकारी श्वापद दरिन्द आदि विचित्र शब्द करने लगे । पिंगल साँप राक्षसों के वाद्य यन्त्र की भाँति हिस-हिस शब्द करने लगे। इन शब्दों को सुनकर मानो वह कुछ नहीं सुन रही है, बहरी हो गई है, इस प्रकार बसन्ततिलका सहित अंजना ने उस भयङ्कर रात्रि को वहीं जागते हुए व्यतीत किया । ( श्लोक १३४ - १३५ ) सवेरा होते ही वह दीन अबला लज्जा से संकुचित बनी परिवार रहित भिक्षु की भाँति पितृगृह के द्वार पर जा खड़ी हुई । द्वार रक्षकों ने बसन्ततिलका से सब कुछ अवगत कर राजा महेन्द्र के पास जाकर यथावत् वर्णन किया ।
( श्लोक १३६-१३७ )
सब कुछ सुनकर राजा महेन्द्र का मस्तक झुक गया । उनका मुख क्रमशः काला होने लगा । वे सोचने लगे कर्म विपाक की तरह स्त्रियों का चरित्र भी अचिन्त्य है । कुलटा अजना मेरे कुल को भी कलङ्कित करने के लिए यहाँ आई है । काजल का एक कण भी पूरे वस्त्र को दूषित कर देता है ।
( श्लोक १३८ - १३९ )
राजा महेन्द्र जब इस प्रकार सोच रहे थे तब उनका नीतिवान पुत्र प्रसन्नकीर्ति अप्रसन्न होकर बोला, 'पिताजी, उस दुष्टा को तुरंत यहाँ से बिदा कर दीजिए। उसने हमारे कुल को कलङ्कित किया है । सर्प द्वारा काटी हुई अंगुली को क्या बुद्धिमान काटकर नहीं