SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [63 उनके इच्छानुरूप समान-विचारशील मित्र की प्रेरणा से पवनञ्जय मित्र सहित आकाश-पथ से अंजना सुन्दरी के प्रासाद में गए और दरवाजे की आड़ में रहे। पहले प्रहसित ने अंजना के कक्ष में प्रवेश किया। उसने देखा-अल्प जल में रही मछली की तरह अंजना बिछौने पर पर पड़ी छटपटा रही थी। कमलिनी जैसे हिम से पीड़ित होती है उसी भांति वह चन्द्र-ज्योत्स्ना से पीड़ित हो रही थी। हृदय के उत्ताप से हार के मोती गल-गल कर गिर रहे थे। दीर्घ निःश्वास के कारण उसकी अलकावली बिखरी हुई थी। असहाय पड़ी वह हाथों को इधर-उधर फेंक रही थी। फलतः कंकण की मणियां टूटने लग गई थी। उसकी सखी बसन्ततिलका उसे धर्य रखने को कह रही थी; किन्तु उसके नेत्रों की दृष्टि और हृदय शून्य होने के कारण वह काष्ठ-पुत्तलिका-सी लग रही थी। (श्लोक ८८-९३) व्यंतर की भांति प्रहसित को सहसा कक्ष में प्रवेश करते देख अंजना भयभीत हो गई। फिर भी साहस संचय कर बोल उठी'तुम कौन हो? पर-पुरुष होकर तुम यहां क्यों आए हो? तुम यहां से तुरन्त बाहर निकल जाओ।' फिर बसन्ततिलका की ओर देख कर बोली-'तू इसका हाथ पकड़कर बाहर निकाल दे। मेरे कक्ष में मेरे पति पवनञ्जय के अतिरिक्त कोई भी आने का अधिकारी नहीं है । तू खड़ी-खड़ी क्या देख रही है ? इसे शीघ्र यहां से बाहर निकाल दे।' __ (श्लोक ९४-९७) अंजना की बात सुनकर प्रहसित उसे प्रणाम कर बोला'दीर्घ दिनों के पश्चात् उत्कण्ठित होकर पवनञ्जय के समागम की अपनी शुभेच्छा प्रकट कर रहा हूं। कामदेव के मित्र जिस प्रकार बसन्त है उसी प्रकार मैं पवनञ्जय का मित्र प्रहसित हूं। निश्चय जानिए जब मैं आया हूं तो पवनञ्जय भी आया है।' (श्लोक ९८-९९) प्रहसित की बात सुनकर अंजना बोली- 'प्रहसित, भाग्य ने पहले से ही मुझे हास्यास्पद बना रखा है अब तुम और बना रहे हो। यह उपहास का समय नहीं है; किन्तु इसमें किसी का क्या दोष ? सब कुछ मेरे कर्म-दोष से ही घटित हुआ है। यदि भाग्य ही मुझ पर प्रसन्न होता तो ऐसे कुलीन पति मेरा परित्याग क्यों
SR No.090517
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rajkumari Bengani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy