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अंजना किसी प्रकार अपने कक्ष में लौटी और जलभेदित नदी तट की तरह जमीन पर गिर पड़ी।
श्लोक ७५) पवनञ्जय वहां से आकाश-पथ द्वारा मानस सरोवर के तट पर आए। सन्ध्या हो जाने के कारण रात्रि वहीं व्यतीत करने का निश्चय कर एक प्रासाद का निर्माण किया। विद्याधरों की विद्या सभी मनोरथ पूर्ण करने में सक्षम होती है। (श्लोक ७६-७७)
मानस सरोवर के तट पर स्व-पर्यंक पर लेटे पवनञ्जय ने एक प्रिय वियोग से पीड़ित चक्रवाकी को देखा। वह पूर्व संगृहीत मृणाल लता को मुह नहीं लगा रही थी। जल शीतल था फिर भी वह उसका स्पर्श नहीं कर रही थी। मानो उसके लिए वह ऊष्ण हो गया था । चन्द्रकिरण भी मानो अब उसके लिए अग्नि वर्षण कर रही हो ऐसी दुःखदायी हो गई। अतः वह करुण स्वर में केवल क्रन्दन कर रही थी।
(श्लोक ७८-८०) __ चक्रवाकी की यह दशा देखकर पवनञ्जय सोचने लगे-ये चक्रवाकियां समस्त दिन ही पति के साथ रहती हैं। उसका विच्छेद केवल रात्रि में ही होता है। फिर भी इस अल्प वियोग को सह नहीं पा रही है, फिर विवाह कर मैंने जिसे त्याग दिया-पर-स्त्री की तरह मैंने जिससे बात तक नहीं की, जिसकी खोज खबर भी नहीं ली, नहीं जानता वह पर्वत-से इस दुःख को सहन कर कैसे बची हई है ? धिक्कार है मुझसे अविवेकी को ! मैंने उसे अपमानित किया-वह निश्चय ही मर जाएगी। तब उसकी हत्या के पाप के कारण मैं किसी को मुह दिखाने लायक भी नहीं रहूंगा।
(श्लोक ८१-८४) तब पवनञ्जय ने स्वमित्र प्रहसित को बुलाकर सारी बातें कहीं। कारण, मित्र के अतिरिक्त हृदय की बात और किससे कही जा सकती है ?
(श्लोक ८५) प्रहसित बोला-'बहुत दिनों के पश्चात् ही सही; किन्तु तुम्हें अपनी भूल मालूम हुई यह बहुत अच्छा है; किन्तु वह वियोगिनी सारस पक्षिणी की भांति जीवित भी है या नहीं कौन जाने ? बन्धु, यदि वह जीवित है तो तुम अभी जाकर उसको आश्वस्त करो। तम तरन्त उसके पास जाओ, उसे सान्त्वना दो और उसकी आज्ञा लेकर विजय के लिए पुनः यहां लौट आओ।' (श्लोक ८६-८७)