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इसलिए रावण ने प्रत्येक विद्याधर राजा के पास दूत भेजा है । मैं भी आपके पास आया हूं ।' (श्लोक ५७-६१ ) दूत की बात सुनकर प्रह्लाद जब रावण की सहायता के लिए जाने की तैयारी करने लगे तब पवनञ्जय उनके पास आए और बोले - 'पिताजी, आप यहीं रहें । मैं जाकर रावण की इच्छा पूरी करूंगा। मैं भी तो आपका ही पुत्र हूं।' इस भांति आग्रहपूर्वक पिता की सम्मति लेकर सबसे विदा होकर पवनञ्जय यात्रा के लिए प्रस्तुत हुए । अंजना पति की युद्ध-यात्रा की खबर सुनकर उत्कण्ठित हुई और जिस प्रकार आकाश से देवी उतरती है उसी प्रकार प्रासाद शिखर से नीचे उतरी । वह द्वार के निकट स्तम्भ का सहारा लिए पुतली की तरह खड़ी होकर व्याकुल हृदय और निर्निमेष नेत्रों से राह देखती रही । ( श्लोक ६२-६६ ) पवनञ्जय ने जाते समय अंजना को निकट से देखा । वह प्रतिपदा के चन्द्र की तरह क्षीण, द्वार के निकट स्तम्भ का आश्रय लिए निर्निमेष राह देखती हुई खड़ी थी । इधर-उधर बिखरे रूखे केशों से उसका ललाट ढँका हुआ था । शिथिल भुजलताएँ उसके नितम्बों की ओर लटकी हुई थीं । ताम्बूलरागहीन उसके अधर फीके पड़ गए थे, अश्रुजल से उसका गण्डस्थल सिक्त था । नेत्रों में काजल भी नहीं था । ( श्लोक ६७-६९) पवनञ्जय उसे देखकर मन ही मन सोचने लगे, यह दुष्टा कितनी निर्लज्जा और निर्भीक है । मैंने तो इसे पहले ही पहचान लिया था । माता-पिता की आज्ञा का उल्लंघन न हो मात्र इसलिए इससे विवाह कर लिया था । ( श्लोक ७०-७१ )
पवनञ्जय जब इस प्रकार सोच रहे थे तभी हाथ जोड़े अंजना आगे आकर उनके पैरों में गिर पड़ी और बोली - 'स्वामी ! आप सबसे मिले, सबसे बोले; किन्तु मेरी तो खबर भी नहीं ली । फिर भी मैं आपसे प्रार्थना करती हूं कि आप मुझे भूल मत जाइएगा । आपकी यात्रा सुखकर हो, कार्य सिद्ध कर आप शीघ्र लौट आएँ ।' ( श्लोक ७२-७३) सच्चरिता दीन सती अबला की इस प्रार्थना का कोई उत्तर दिए बिना ही वहां से विजय के लिए निकल पड़े । ( श्लोक ७४ ) पतिकृत अवज्ञा से और दुःखी होकर पति वियोग में विधुरा