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और जो सुन रही है दोनों को ही मैं इसी समय यमपुर भेज दूंगा ?' प्रहसित ने मित्र को हाथ पकड़ कर रोक लिया। बोला, 'क्या तुम नहीं जानते स्त्री अपराधिनी होने पर भी गाय की भाँति अवध्य है। फिर अंजना सुन्दरी तो एकदम निरपराध है। वह सहज लज्जावश ही अपनी सखी को रोक नहीं सकी।'
(श्लोक २९-३३) प्रहसित द्वारा रोक दिए जाने पर वे दोनों पुनः आकाश पथ से अपने स्थान को लौट आए। पवनंजय को रात में नींद नहीं आई। समस्त रात्रि जागते हुए दुःखित हृदय से नाना प्रकार की चिन्ता करने लगा।
(श्लोक ३४) दूसरे दिन सुबह उसने प्रहसित से कहा, 'मित्र, ऐसी स्त्री से विवाह करना व्यर्थ है। कारण सामान्य सेवक भी यदि विरक्त हो तो वह आपत्ति का कारण होता है। फिर विरक्त पत्नी का तो कहना ही क्या ? अत: चलो हम इस कन्या का परित्याग कर स्वनगर को लौट जाएँ। कारण जो खाद्य स्वयं को अच्छा नहीं लगे वह कितना ही स्वादिष्ट क्यों न हो मुझे उससे क्या ?'
(श्लोक ३५-३६) __ ऐसा कहकर पवनंजय जाने के लिए प्रस्तुत हुआ। प्रहसित ने उसको पकड़कर रखा और समझाने लगा । 'जिस कार्य को करेंगे यह कहकर स्वीकार कर लिया जाता है उस कार्य को पूर्ण किए बिना परित्याग करना महापुरुषों को शोभा नहीं देता। फिर अनुलंध्य गुरुजनों ने जिसे स्वीकार कर लिया उसका उल्लंघन कर सकोगे ? गुरुजन यदि अर्थ के विनिमय में या ऐसे ही किसी को दे दें तो भी सत्पुरुषों के लिए वही प्रमाण अथवा मान्य है। इसके लिए कोई दूसरी राह नहीं होती। फिर इस विषय में अंजना सुन्दरी का तो किंचित्-मात्र भी दोष नहीं है। मेरे मित्र का हृदय तो उस पर इस प्रकार दोष का आरोप करके ही दूषित हो गया है। तुम्हारे और उसके माता-पिता प्रख्यात हैं अतः स्वेच्छाचारी होकर यदि तुम चले जाओगे तो उन्हें लज्जित होना होगा। यह क्यों नहीं सोचते ?'
(श्लोक ३७-४१) प्रहसित की बात सुनकर हृदय में शल्य रहते हए भी पवनंजय वहाँ रह गए।
(श्लोक ४२) निश्चित दिन अंजना सुन्दरी और पवनञ्जय का विवाह हो