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हुआ, पर्वत की तरह अटल रहा।
(श्लोक ६४०-६४२) 'कल्याणगुणधर नामक एक साधु जो कि उसके गुरु भाई थे आए थे, उन्होंने यह कृत्य देखा था। तुम्हें निवृत्त करने के लिए जिस प्रकार वृक्ष पर बिजली गिरती है उसी प्रकार तुम पर तेजोलेश्या फेंकी। यह देखकर तुम्हारी पत्नी सत्यश्री ने अनुनय-विनय द्वारा मुनि को शान्त किया। तब उन्होंने उस तेजोलेश्या का संहरण किया। अतः तुम्हें जलकर मरने से छुटकारा मिला; किन्तु मुनि का तिरस्कार करने के कारण उन्हें कष्ट देने के कारण तमने दीर्घकाल तक संसार-भ्रमण किया। तदुपरान्त कुछ शुभ कर्म उपार्जन करने के कारण सहस्रार के पुत्र इन्द्र रूप में जन्म ग्रहण किया। रावण द्वारा जो तुम तिरस्कृत हुए वह मुनि को दुःख देने और उनका तिरस्कार करने के कारण । क्योंकि कर्म सामान्य कीट से पुरन्दर तक को उसका फल अवश्य देता है। चाहे वह शीघ्र दे या दीर्घ दिनों तक दे । संसार का यही नियम है।' (श्लोक ६४३-६४७)
__ इस प्रकार अपने पूर्व भव का वृत्तान्त अवगत कर इन्द्र ने अपने पुत्र दत्तवीर्य को राज्य देकर स्वयं दीक्षा ग्रहण कर ली और उग्र तपश्चर्या कर मोक्ष गमन किया।
(श्लोक ६४८) एक बार रावण अनन्तवीर्य नामक मुनि को केवलज्ञान होने पर वन्दन करने स्वर्णतुङ्ग नामक पर्वत पर गया। उन्हें वन्दना कर उसने योग्य स्थान पर बैठकर कानों के लिए अमृत तुल्य उनकी धर्म-देशना सुनी। देशना शेष होने पर रावण ने उनसे पूछाभगवन् ! मेरी मृत्यु किस कारण से और किसके हाथ होगी ?' महर्षि ने प्रत्युत्तर दिया-'पर स्त्री दोष से भविष्य में जन्म लेने वाले वासुदेव के हाथों प्रति वासुदेव तुम्हारी मृत्यु होगी।'
(श्लोक ६४९-६५२) यह सुनकर रावण ने उनके सम्मुख ही यह प्रतिज्ञा ग्रहण की कि किसी अनिच्छुक पर स्त्री से वह संभोग नहीं करेगा। (श्लोक ६५३)
तदुपरान्त ज्ञान रत्न के सागर मुनि को वन्दना कर रावण पुष्पक विमान में बैठकर अपने नगर को लौट आया और वहां के नर-नारियों के नेत्र रूपी नीलं कमलों के हर्ष वैभव देने में वह चन्द्र रूप बना।
__ (श्लोक ६५४) द्वितीय सर्ग समाप्त