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सुगन्धित जल की वृष्टि करेगा और उद्यान से फूल तोड़कर माली की तरह मालाएँ गूँथ कर नगर में जितने भी देवालय हैं वहां उन मालाओं को पहुंचाएगा । यदि वह यह स्वीकार करे तभी वह मुक्त होगा और अपना राज्य पुनः प्राप्त कर मेरा कृपापात्र बनकर दिन व्यतीत करेगा ।' ( श्लोक ६२६-६३०) सहस्रार के यह सब स्वीकार कर लेने पर रावण ने अपने भाई की तरह इन्द्र का सत्कार कर उसे मुक्त कर दिया ।
(श्लोक ६३१)
तब इन्द्र रथनुपुर आकर महादुःख से दिन व्यतीत करने लगा । कहा भी गया है तेजस्वी पुरुष के लिए निस्तेज होने का दुःख मृत्यु - दुःख से भी दुस्सह है । ( श्लोक ६३२) एक दिन निर्वाणसंगम नामक मुनि वहाँ आए । इन्द्र उन्हें वन्दना करने गया । वन्दना कर इन्द्र ने उनसे पूछा - ' किस कर्मफल के कारण रावण द्वारा मैं इस प्रकार अपमानित हुआ ?' मुनि ने जवाब दिया
'बहुत दिनों पूर्व अरिञ्जय नामक नगर में ज्वलनसिंह नामक एक विद्याधर राजा रहता था । उसकी वेगवती नामक रानी थी । उनके अहिल्या नामक एक रूपवती कन्या थी । समस्त विद्याधर राज उनके स्वयंवर में एकत्र हुए। उस स्वयंवर में चन्द्रावर्त नगर के राजा आनन्दमाली और सूर्यावर्त के राजा तडित्प्रभ भी आए थे । तडित्प्रभ तुम थे । तुम दोनों एक साथ आए थे । फिर भी अहल्या ने तुम्हारा परित्याग कर स्वेच्छा से आनन्दमाली के गले में वरमाला डाली | तुम्हें यह अपमान लगा । उस दिन से तुम आनन्दमाली के प्रति द्वेष भाव रखने लगे । कारण, तुमने सोचा तुम्हारे रहते अहल्या ने उसको वरमाला कैसे पहनाई ?' ( श्लोक ६३३-६३९) 'कुछ दिनों पश्चात् आनन्दमाली के मन में संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न हो गया । उसने संसार परित्याग कर दीक्षा ग्रहण की और महर्षियों के साथ तीव्र तपस्या करने लगा । विहार करते हुए वह एक बार रथावत नामक पर्वत पर आया और वहां पर ध्यान करने लगा । तुमने उसे वहां देखा । देखते ही तुम्हें अहल्या के स्वयंवर की घटना याद हो आई । अत: तुमने उसे उसी अवस्था में बांधकर खूब मारा; किन्तु वह ध्यान से जरा भी विचलित नहीं