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भगवान का गुणगान करते देख सन्तुष्ट होकर धरणेन्द्र ने जिसे अमोघ शक्ति दी और जो प्रभ, मन्त्र और उत्साह से आज सबके लिए अजेय है। उसकी दोनों भुजाभों की तरह विभीषण और कुम्भकर्ण नामक दो पराक्रमी भाई हैं। सुकेश राक्षस के वंश में उत्पन्न उस वीर का नाम है रावण । उसने तुम्हारे यम और वैश्रवण नामक सेवक को क्रीड़ा ही क्रीड़ा में हरा दिया। बाली के भाई सुग्रीव को उसने अपना सामन्त बना लिया है। अग्निमय प्राकार वेष्टित दुर्लंघपुर में भी अनायास प्रविष्ट हो गया और उसके छोटे भाई ने वहाँ के राजा नलकवर को क्रीड़ामात्र में बन्दी बना लिया। ऐसा रावण आज तुम्हारे यहाँ आया है। प्रलयकालीन अग्नि के समान उद्धत रावण को प्रणिपात अर्थात् नम्रतारूपी अमृत वृष्टि से शान्त करो। तुम अपनी रूपवती कन्या रावण को दान करो ताकि दोनों सम्बन्ध स्नेहमय बने।' (श्लोक ५७८-५९१)
पिता के ये वचन सुनकर इन्द्र अत्यन्त क्रुद्ध हो गया और बोला-'पिताजी, रावण मेरा शत्रु है। शत्रु को मैं अपनी कन्या कैसे दूंगा? हमारा वैर आज का नहीं वश परम्परा से चला आ रहा है। हमारे पूर्वज विजयसिंह की उनके पक्ष के राजा ने हत्या की, मैंने उसके पितामह माली की जो दुर्दशा की थी वही दुर्दशा मैं आज रावण की भी करूंगा। रावण आया है तो आए, मेरे लिए वह तुच्छ है । स्नेहवश आप चिन्तित न हों, धैर्य रखें। अपने पुत्र के भुजबल को तो आपने कितनी ही बार देखा है। क्या आप मेरा पराक्रम नहीं जानते ?'
(श्लोक ५९२-५९५) इन्द्र जिस समय पिता को यह सब कह रहा था तभी उसे खबर मिली कि रावण ने नगर को घेर लिया है। थोडी देर पश्चात् ही रावण का दूत उसके निकट आया और विश्वस्तता पूर्वक बोला-'राजन्, जो राजा अपने भजबल और विद्याबल पर गर्व करते थे उन सबका गर्व आज खण्डित हो गया है। वे उपहार देकर रावण की पूजा करते हैं। रावण की विस्मृति और आपकी सरलता के कारण इतने दिनों तक आप निश्चिन्ततापूर्वक राज्य करते रहे; किन्तु अब आपका भी समय आ गया उनकी सेवा का। अतः अब रावण की सेवा करें। और यदि सेवा की इच्छा नहीं है तो स्वशक्ति का प्रदर्शन करें। यदि भक्ति और शक्ति किसी का भी