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यह सुनकर रावण स्वयं वहां गया और अग्निवेष्टित वैसा ही दुर्ग देखा। रावण चिन्तामग्न हो गया कि उसे किस प्रकार जय किया जाए। इसी विषय में वह अपने बन्धु-बांधवों से विचारविमर्श करने लगा।
(श्लोक ५५७-५५८) नलकवर की पत्नी उपरम्भा रावण पर आसक्त हो गई। अतः उसने रावण के पास दूती भेजी। वह दूती रावण से जाकर बोली-'मूर्तिमती जयलक्ष्मी-सी उपरम्भा आपके साथ क्रीड़ा करना चाहती है। आपके गुणों पर मुग्ध बनी उसका मन तो आपके पास आ ही गया है वहाँ तो मात्र शरीर है। हे मानद, इस नगर की रक्षिका आशाली नामक विद्या को वह अपने शरीर की तरह आपके अधीन कर देगी। फलतः आप नलकूवर सहित नगर को अपने अधीन कर सकेंगे। हे देव, सुदर्शन नामक एक चक्र भी आपको प्राप्त होगा।
(श्लोक ५५९-५६१) यह सुनकर रावण ने हँसते हुए विभीषण की ओर देखा। विभीषण ने तुरन्त 'ऐसा ही होगा' कहकर दूती को विदा कर दिया। तब रावण क्रुद्ध होकर विभीषण से बोला, 'विभीषण, तुमने इस कुल विरुद्ध कार्य की स्वीकृति क्यों दी ? अरे मूढ़, हमारे कुल में आज तक किसी भी पुरुष ने रणभूमि में आकर शत्रु को पीठ नहीं दिखाई और न ही पर-स्त्री को अपना हृदय दिया। वैसा करना तो दूर की बात है, तमने ऐसा कहकर भी निज कूल को कलङ्गित कर लिया है । तुम इतने विज्ञ होकर भी कैसे मतिच्छिन्न हो गए और ऐसा कह डाला ?' विभीषण बोला, 'हे अग्रज, हे महाबाहु, प्रसन्न हों, प्रसन्न हों, इतने कुपित मत होइए। शुद्ध हृदयी पुरुष को केवल वचन से ही न दोष लगता है न कलङ्क। पहले उसे आने तो दें, वह आपको विधा देगी। आप उस विद्या से नल कुवर को वशीभूत कर लें। फिर उसे अस्वीकार कर दीजिएगा। युक्तियुक्त बचनों से उसे समझा-बुझाकर निवृत्त कर दीजिएगा।'
(श्लोक ५६२-५६७) विभीषण की बात को स्वीकृति देने के पूर्व ही रावण के आलिंगन की आशा लिए उपरम्भा वहाँ आकर उपस्थित हो गई। उसने आशाली नामक वह विद्या रावण को दी। रावण उस विद्या के प्रभाव से अग्निमय वेष्टिनी नष्ट कर दुर्लघपुर में स्वसेना