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'लज्जा से प्रभव का मस्तक झुक गया। मानो वह धरती में प्रवेश करना चाहता हो। बड़ी कठिनता के बाद सुमित्र उसे स्वस्थ कर पाए । तदुपरान्त उन्होंने बहुत दिनों तक राज्यकार्य किया। उनका बन्धुत्व पूर्व की तरह ही अक्षुण्ण रहा। शेष जीवन में सुमित्र ने दीक्षा ले ली और मृत्यु के पश्चात् ईशानकल्प में देव रूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ से च्युत होकर हरिवाहन की पत्नी माधवी के पराक्रमी पुत्र मधु के रूप में तुमने यहाँ जन्म ग्रहण किया है । प्रभव दीर्घकाल भवभ्रमण कर विश्वावसू की पत्नी ज्योतिमयी की कूक्षि से श्रीकुमार नामक पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। उस जन्म में निदान करने के कारण उसने चमरेन्द्र रूप में जन्म ग्रहण किया। वह चमरेन्द्र मैं हूं तुम्हारे पूर्व जन्म का मित्र ।' ऐसा कहकर उसने मुझे यह त्रिशूल दिया। यह त्रिशूल दो हजार योजन पर्यन्त जाकर कार्य सिद्ध कर पुनः लौट आता है।'
(श्लोक ५४२-५४७) यह सुनकर दशानन ने भक्ति और शक्ति के धारक मधु के साथ अपनी कन्या मनोरमा का विवाह कर दिया। (श्लोक ५४८)
लङ्का से दिग्विजय के लिए निकलने के पश्चात् १६ वर्ष व्यतीत होने पर रावण मेरु पर्वत स्थित पाण्डक वन में जो अर्हत् चैत्य है वहाँ पूजा करने गया। वहाँ रावण ने भक्तिभाव से समस्त चैत्यों की वन्दना की और अत्यन्त धूमधाम से पूजा उत्सवादि अनुष्ठान किए।
(श्लोक ५४९ ५५०) दुर्लङ्घपुर में इन्द्र का पूर्व दिक्पाल नलकूवर निवास करता था। रावण के आदेश से कुम्भकर्णादि उसे पकड़ने गए । नल कूवर ने आशाली नामक विद्या के प्रभाव से अपने नगर के चारों ओर एक सौ योजन ऊँचे एक प्राकार का निर्माण कर रखा था। उस पर उसने एक ऐसा अग्निमय यन्त्र स्थापित कर रखा था जिससे निकलते स्फुलिंग ऐसे लगते मानो अग्नि वर्षा हो रही है। उसी सुदृढ़ प्राकार के भीतर सैन्य परिवृत्त क्रोध से प्रज्वलित अग्निकुमार सा नलकूवर रहता था।
(श्लोक ५५१-५५४) सोकर उठा मनुष्य जैसे ग्रीष्मकालीन दोपहर के सूर्य को नहीं देख सकता उसी भांति कुम्भकर्णादि वहां जाकर उस नगर को नहीं देख पाए। उनका उत्साह भंग हो गया। उन्होंने रावण से जाकर निवेदन किया कि दुर्लङ्घपुर वास्तव में दुर्लघ्य है। (श्लोक ५५५-५५६)