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गया और कृष्ण पक्ष के चन्द्र की भाँति प्रतिदिन क्षीण होने लगा । उसका काम रोग इतना असाध्य हो गया कि कोई भी औषध, मन्त्र-तन्त्र उसे ठीक नहीं कर सके । यह देखकर राजा सुमित्र ने एक दिन उससे पूछा, 'मित्र, तुम्हें क्या हुआ है, मुझे स्पष्टतया बताओ ।' प्रभव ने कहा, 'वह मैं तुम्हें नहीं बता सकता यद्यपि वह मेरे मन में है; किन्तु वह नीच और कुलनाशक है।' राजा ने उससे सत्य बात कहने के लिए जब बार-बार आग्रह किया तो उच्च-कुल- जात प्रभव बोला, 'तुम्हारी पत्नी वनमाला पर मेरा अनुराग ही इसका कारण है ।' राजा बोला, 'मित्र, तुम्हारे लिए मैं समस्त राज्य का परित्याग कर सकता हूं, बनमाला को त्यागना तो तुच्छ है । आज ही तुम उसे पाओगे' कहकर प्रभव को घर भेज दिया एवं सन्ध्या के पश्चात् स्वयं ही दूती की तरह वनमाला को उसके पास भेजा । (श्लोक ५२५-५३२) 'वनमाला प्रभव के पास जाकर बोली, 'आपको दुःखी देखकर राजा ने जीवन प्रदायिनी औषधि की भाँति मुझे यहाँ भेजा है । आदेश दें मैं आपकी क्या सेवा करू ? पति की आज्ञा का पालन करना मेरा प्रथम कर्त्तव्य है । आपके लिए मेरे पति तो जीवन पर्यन्त दे सकते हैं तो फिर मुझ-सी दासी की तो बात ही क्या है ? प्रसन्न हों, आप क्यों उदास हो गए हैं ?' ( श्लोक ५३३-५३४) 'प्रभव पश्चाताप करता हुआ बोला, 'मुझसे निर्लज्ज को धिक्कार है ! सुमित्र ही वास्तव में महान् है । मेरे प्रति उसके प्रेम की सीमा नहीं है । अन्य के लिए अपना जीवन दिया जा सकता है; किन्तु पत्नी नहीं । आप मेरी माता तुल्य हैं । अतः यहाँ से चली जाइए और आज से पति के आदेश देने पर भी पाप पुँज रूपी मेरी ओर भूलकर भी न देखें, न बोलें।' (श्लोक ५३५-५३८ ) 'राजा सुमित्र भी वनमाला के पीछे-पीछे आए थे और आड़ से समस्त बातें सुन रहे थे । मित्र का ऐसा सत्व देखकर मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए । ( श्लोक ५३९ ) ' प्रभव ने वनमाला को नमस्कार कर विदा दी । तदुपरान्त खड्ग लेकर अपना शिरोच्छेद करने को तत्पर हो गया । सुमित्र ने उसी समय सम्मुख आकर खड्ग छीन लिया । बोले, 'तुम यह दुःसाहस क्यों कर रहे हो ?' ( श्लोक ५४० - ५४१ )
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