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जाता है न श्रावक । नारद कलह-विवाद में रुचि लेता है और नृत्य-गीत में प्रेम रखता है; किन्तु काम से सदा दूर रहता है । वह एक साथ वाचाल व वत्सल है। वीर और कामी पूरुषों के बीच सन्धि और विग्रह कराता है। हाथ में दर्भासन, अक्षमाला और कमण्डल लेकर और पैर में खड़ाऊ पहन कर वह सर्वत्र घूमता रहता रहता है । उसका लालन-पालन देवों ने किया था इसलिए लोग उसे देवर्षि कहते हैं । वे ब्रह्मचारी और स्वेच्छा-विहारी हैं।'
(श्लोक ५११-५१४) नारद का वृत्तान्त सुनकर मरुत् राजा ने अज्ञानपूर्वक जो यज्ञ करवाने का अपराध किया था उसके लिए रावण से क्षमा मांगी एवं अपनी पुत्री कनकप्रभा उसे दी। रावण ने भी वहीं उस कन्या से विवाह किया। मरुत् राजा के यज्ञ को भङ्ग करने वाला, पवन-सा महाबली रावण वहाँ से मथुरा चला गया।
(श्लोक ५१५-५१७) मथुरा का राजा हरिवाहन अपने त्रिशूलधारी पुत्र मधु के साथ रावण से मिलने आया। कुछ देर बात-चीत करने के पश्चात् रावण ने हरिवाहन से पूछा, 'तुम्हारे पुत्र को यह त्रिशूल कैसे प्राप्त हुआ ?' हरिवाहन ने भकुटि से संकेत कर मधु को आज्ञा दी। मधु मृदुस्वर में कहने लगा :
(श्लोक ५१८.५१९) _ 'यह त्रिशूल मेरे पूर्व भव के मित्र चमरेन्द्र ने मुझे दिया है। त्रिशूल देने के समय उसने मुझसे कहा था धातकीखण्ड के ऐरावत क्षेत्र में शतद्वार नामक एक नगर है। वहाँ सुमित्र नामक एक राजपुत्र और प्रभव नामक एक कुलपुत्र निवास करते थे। उनमें वसन्त और वसन्त-सखा मदन की भाँति प्रेम था। बाल्यकाल में वे एक गुरु के पास रहकर कला का अभ्यास करते और अश्विनी कुमारों की तरह अविभक्त रूप से क्रीड़ा करते । सुमित्र जब बड़ा हुआ तो सिंहासन पर बैठा और प्रभव को भी अपनी तरह समृद्धशाली बना दिया।
(श्लोक ५२०-५२४) 'एक बार सुमित्र का अश्व उसे लेकर एक गहन वन में चला गया। वहाँ उसने पल्लीपति की कन्या वनमाला से विवाह किया और उसे प्रासाद में ले आया। एक दिन प्रभव ने उस रूप-यौवन सम्पन्ना वनमाला को देखा। देखते ही वह काम के वशीभूत हो