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असुर ने अत्यन्त भयंकर रोग प्रसारित किया। लोगों के विश्वास के अनुसार सगर राजा ने भी पर्वत से अपना रोग दूर करवाया। पर्वत भी शाण्डिल्य की सहायता से सर्वत्र शान्ति स्थापित करने लगा।
(श्लोक ४८३-४८४) तदुपरान्त शाण्डिल्य के कथनानुसार पर्वत उपदेश देने लगा कि सौत्रामिनी यज्ञ में मदिरा-पान करना उचित है। कारण, विधिवत् सुरापान करने में कोई दोष नहीं है। गोसव यज्ञ में अगभ्यागमन भी किया जा सकता है। मातृमेध यज्ञ की वेदी पर माता का और पितृमेध यज्ञ की वेदी पर पिता का वध करना उचित है। इसमें कोई दोष नहीं है। कछवे की पीठ पर अग्नि प्रज्वलित कर 'जुह्वकांक्षाय स्वाहा' बोलकर (अग्नि के) प्रीत्यर्थ में हवनीय द्रव्य होम करो। यदि कछुवा न मिले तब गंजे सिर वाले, पीतवर्ण, आलस्य-परायण, गले तक निर्मल जल में डूबे हुए, शुद्ध ब्राह्मण के मस्तक पर कछवे की तरह अग्नि प्रज्वलित कर उसमें आहुति दो। जो हए हैं और होंगे, जो मोक्ष के ईश्वर हैं और जो अन्न द्वारा निर्वाह करते हैं वे सब ईश्वरमय हैं। तब कौन किसका वध करता है ? इसलिए यज्ञ में जितना चाहो उतना पशु-वध करो। यज्ञ में मांस-भक्षण उचित है। यज्ञ के द्वारा जो मांस पवित्र हुआ है, वह देवता के उद्देश्य से हआ है।
(श्लोक ४८५-४९२) ऐसे उपदेश से सगर राजा ने जब उसका मत स्वीकार कर लिया तब उसने कुरुक्षेत्र आदि में बहुत से यज्ञ करवाए । इस प्रकार स्वमत प्रसारित होने पर उसने राजसूय यज्ञ आदि करवाए और मृत पशुओं को देव-विमान में बैठे हुए दिखाया। अतः पर्वत के मत की सत्यता पर विश्वास कर लोग निःशंक होकर यज्ञ में जीव-वध करने लगे। यह देखकर मैंने दिवाकर नामक विद्याधर से कहा'यज्ञ में वध के लिए आए पशुओं का तुम्हें हरण कर लेना चाहिए।' मेरी बात स्वीकार कर वह यज्ञ-स्थली से पशुओं का हरण करने लगा। यह बात वह परमाधामी असुर जान गया। अतः उसकी विद्या व्यर्थ करने के लिए महाकाल यज्ञ में ऋषभ देव की प्रतिमा रखने लगा । यह देखकर उस विद्याधर ने पशु-हरण बन्द कर दिया। मैं भी निरुपाय होकर वहां से अन्यत्र चला गया। तदुपरान्त उसी असुर ने माया द्वारा यज्ञवेदी पर यह वाक्य ध्वनित किया-'सगर