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'पर्वत की माँ को देखकर वसु राजा बोला, आज आपको देखकर लग रहा है जैसे मैं गुरुदेव क्षीरकदम्ब को ही देख रहा हूं। कहिए मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? या आपको क्या दू?'
(श्लोक ४३१) 'वह बोली, 'राजन, मैं तुमसे पुत्र की भिक्षा माँगने आई हैं। बिना पुत्र के धनधान्य किस काम का?' (श्लोक ४३२) _ 'वसु बोला, 'माँ, आपका पुत्र मेरे लिए पालनीय और पूजनीय है। कहा भी गया है कि गुरु-पुत्र के साथ गुरु जैसा ही व्यवहार करो। माँ, इस असमय में रोषकारी काल आज किसके लिए खाता खोले बैठा है ? मेरे भाई पर्वत को कौन मारना चाहता है ? और आप इतनी व्याकुल क्यों हो रही हैं ?'
(श्लोक ४३३-४३४) 'पर्वत की माँ ने नारद और पर्वत के मध्य हुए वार्तालाप, पर्वत की प्रतिज्ञा सब कुछ स्पष्टतया बता दिया। बोली, 'वत्स, अतः तुम 'अज' शब्द का अर्थ 'बकरा' ही करना। क्योंकि महान् व्यक्ति जब अपने प्राण देकर भी दूसरों की रक्षा करते हैं तो तुम वाक्य द्वारा उपकार क्यों नहीं करोगे?' (श्लोक ४३५-४३६)
___'वसू बोला, 'माँ, मैं मिथ्या क्यों बोलगा? सत्यवादी प्राण जाने पर भी मिथ्या नहीं बोलते । पाप-भय से जो भीत है उसके लिए जब किसी भी प्रकार का झूठ बोलना अनुचित है तब गुरु-वाक्य को अन्यथाकारी मिथ्या साक्षी मैं कैसे दूंगा?'
(श्लोक ४३७-४३८) 'तब पर्वत की माँ क्रुद्ध होकर बोली, 'वत्स, चाहे गुरु पुत्र के प्राणों की रक्षा करो या सत्य का आग्रह । दोनों कार्य एक साथ नहीं हो सकते ।
(श्लोक ४३९) _ 'तब वसु राजा ने गुरु पुत्र के प्राणों की रक्षा करना स्वीकार कर लिया। पर्वत की माँ इससे प्रसन्न होकर अपने घर लौट गई। मैं और पर्वत तब वसु राजा के निकट गए। (श्लोक ४४०)
___ 'सभा के मध्य में गुणों से सुशोभित और सत् एवं असत्वादरूपी क्षीर और नीर का भेद करने में हंस रूप विज्ञ पुरुष एकत्रित हो रहे थे। आकाश-सी निर्मल स्फटिक शिला की वेदी पर रखे सहासन पर वसु सभापति बनकर बैठा था। वह इस प्रकार