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रूपी आशीर्वाद दिया तब रावण ने करबद्ध होकर उनसे वहां आने का कारण पूछा । प्रत्युत्तर में मुनि बोले- (श्लोक ३३९-३४४)
___'मैं माहिष्मती का राजा था। मेरा नाम शतबाह था । सिंह जैसे अग्नि से डर जाता है उसी प्रकार संसार भय से भीत होकर पुत्र सहस्रांशू को राज्य देकर मोक्षमार्ग पर जाने के लिए रथतुल्य यह चारित्र ग्रहण किया।'
(श्लोक ३४५-३४६) मुनि के इतना कहते ही रावण ने माथा नीचे कर सहस्रांशु की ओर देखते हुए पूछा-'क्या ये महाबाहु ही आपके पुत्र हैं ?'
(श्लोक ३४७) मुनि बोले, 'हां।'
तब रावण कहने लगा- 'मैं दिग्विजय के लिए निकलकर रेवा तट पर आया और वहां छावनी डाली। जब मैं खिला हआ कमल लेकर प्रभु की पूजा कर एकाग्र चित्त से ध्यान करने लगा तभी आपके पूत्र ने स्व-शरीर का दूषित जल छोड़कर मेरी पूजा भंग कर दी। इसीलिए क्रुद्ध होकर मैं उन्हें पकड़कर लाया हूं; किन्तु अब मैं समझ गया कि यह कार्य उन्होंने अनजान में किया है । कारण, आपके पुत्र जानबूझ कर (जिससे अर्हत् का असम्मान हो) ऐसा कार्य नहीं कर सकते ।'
(श्लोक ३४८-३५१) __ ऐसा कहकर रावण ने मुनि को प्रणाम किया और सहस्रांशु को समीप बुलवाया। उसने लज्जा से माथा नीचे कर मुनि-पिता को प्रणाम किया। तब रावण उससे बोला-'हे महाबाहु, आज से आप मेरे भाई हैं। मुनि शतबाहु जिस प्रकार आपके पिता हैं उसी प्रकार मेरे भी पिता हैं। अतः आइए, स्व राज्य का पालन करिए। मैं आपको और भी भूमि दे रहा हूं। हम लोग तीन भाई थे । आज से हम चार भाई होकर समान रूप से राजलक्ष्मी का भोग करेंगे।' ऐसा कहकर रावण ने उन्हें मुक्त कर दिया। (श्लोक ३५२-३५४)
मुक्त होकर सहस्रांशु बोला-'इस देह और राज्य पर मेरी जरा भी अभिरुचि नहीं है। मेरे पिता ने संसार नाशकारी जो व्रत ग्रहण किया है उसी व्रत को मैं भी ग्रहण करूंगा। साधुओं के लिए यही मार्ग निर्वाण प्रदानकारी है।'
(श्लोक ३५५-३५६) ऐसा कहकर अपने पुत्र को रावण के हाथों सौंपकर चरम शरीरी सहस्रांशु ने पिता से दीक्षा ग्रहण कर ली और यह समाचार