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सम्मुख उपस्थित करो।'
श्लोक ३२६-३२८) रावण की यह आज्ञा सुनते ही राक्षस वीर नदी तट के किनारे-किनारे दौड़ने लगे। लगा जैसे रेवा का प्रवाह विपरीत प्रवाहित हो रहा है। वहां पहुंचते ही नवागत हाथी के साथ जैसे हाथी युद्ध करते हैं वैसे ही सहस्रांशु के सैनिक राक्षस सेना के साथ युद्ध करने लगे। मेघ जैसे शिखा बरसा कर शरभ को कष्ट देता है उसी प्रकार राक्षस वीर आकाश में स्थित होकर विद्या द्वारा उन्हें विमोहित कर कष्ट देने लगे। अपने सैनिकों को पीड़ित होते देख क्रुद्ध सहस्रांशु के ओष्ठ काँपने लगे । उसने हाथों के इशारे से अपनी अन्तःपुरिकाओं को आश्वस्त किया । आकाशगङ्गा से जैसे ऐरावत निकलता है उसी प्रकार रेवा नदी से निकल कर धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर बाण-वर्षा करने लगा । उस महाबाहु की बाण वर्षा से राक्षसगण तीव्र हवा से जैसे घास-फूस उड़ जाता है उसी प्रकार इधर-उधर पछाड़ खा-खाकर गिरने लगे। युद्ध से स्व-सैन्य को पदान्मुख होते देखकर रावण क्रुद्ध होकर बाण वर्षा करता हुआ सहस्रांशु के सम्मुख आया। दोनों ही क्रुद्ध थे, दोनों ही शक्तिशाली थे, दोनों ही उग्र बने बहुत देर तक युद्ध करते रहे । अन्ततः भुजबल से सहस्रांशू को पराजित करना असम्भव देख रावण ने विद्या द्वारा उसे विमोहित कर हाथी की भांति पकड़ लिया। उस महावीर को पराजित कर देने पर भी स्वयं ही जैसे पराजित हुआ हो इस प्रकार रावण उसकी प्रशंसा करते हुए उसे अपने स्कन्धावार में ले गया ।
(श्लोक ३२९-३३८) रावण हर्षित होकर जैसे ही सभा में बैठा वैसे ही शतबाहु नामक एक चारण मुनि वहां उपस्थित हुए। मेघ के उदित होने से मयूर जैसे उसका स्वागत करता है उसी प्रकार रावण ने तत्क्षण सिंहासन से नीचे उतर कर मणिमय पादुका परित्याग कर उनका स्वागत किया और वे अरिहन्त के गणघर हों इस प्रकार उनके चरणों में गिरकर पंचांगों से भूमिस्पर्शपूर्वक उन्हें प्रणाम किया। तदुपरान्त मुनि को आसन देकर उसी आसन पर बैठाया और पुनः उन्हें प्रणाम कर स्वयं जमीन पर बैठ गया। मूर्तिमान विश्वास की तरह और जगत् को आश्वासित करने के लिए जो बन्धु तुल्य हैं ऐसे उन मुनि ने रावण को समस्त कल्याण की जननी रूप धर्म लाभ