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ने भी स्व-सेना के साथ वायु के पीछे जैसे अग्नि जाती है उसी प्रकार राक्षसपति रावण का अनुगमन किया । ( श्लोक २९६-२९७ ) असंख्य सैन्य से आकाश और धरती को आच्छादित कर उद्वेलित समुद्र की तरह रावण अस्खलित गति से अग्रसर होने लगा । आगे जाने पर विंध्य पर्वत से अवतरित चतुरा भामिनी-सी रेवा नदी को देखा । उस कल-कल नादिनी के तट पर हंस पंक्तियाँ इस प्रकार सुशोभित हो रही थी मानो ये उस तन्वंगी की कटिमेखला हो, विशाल तट भूमि उसके नितम्ब हों । उसकी उत्ताल उमिमालाओं को देखकर लगता जैसे उसकी केशराशि हवा में आन्दोलित हो रही हो। उसमें रह रह कर मछलियाँ उछल उछल कर ऊपर आ रही थी जिसे देख कर लग रहा था कि वह कामिनी कटाक्ष कर रही है । ऐसी शोभा धारिणी रेवा नदी के तट पर रावण ने स्नान दो 'उज्ज्वल वस्त्र पहने और मन को स्थिर कर आसन पर बैठ गया। सम्मुख रखी मणिमय चौकी पर अर्हतु बिम्ब स्थापित कर उसने रेवा - जल से उसको स्नान कराया और रेवा में ही विकसित कमल से पूजा कर ध्यान में लीन हो गया । उसी समय अकस्मात् समुद्र में ज्वार आने की तरह रेवा नदी में बाढ़ आ गया। एक मुट्ठी घास की तरह बड़े-बड़े वृक्ष समूह को उखाड़ कर रेवा का जल तटों को प्लावित करने लगा । ऊर्द्धात्क्षिप्त तरंगे तट पर बंधी नौकाओं को इस प्रकार पछाड़ने लगीं जिस प्रकार मुक्ता के लिए सीपों को पछाड़ा जाता है । पेटू के पेट को जैसे आहार भर देता है उसी प्रकार तट पर बने गहन गह्वरों को रेवा के जल ने भर दिया । पूर्णिमा की ज्योत्स्ना जिस प्रकार ज्योतिष्कों के विमान को आवृत कर देती है उसी भांति रेवा के जल ने अपने मध्य स्थित उन्नत भूमि को आवृत कर दिया । चक्रवात वायु चक्रवेग से जिस प्रकार वृक्ष के पत्रों को आकाश में उछालती है उसी प्रकार तरंगों के उच्छास छोटी-छोटी मछलियों को आकाश में उछालने लगे । वही फेन और कर्दममय जल महावेग से आकर रावण की समस्त पूजा द्रव्य को बहाकर ले गया । शिरस्च्छेद से अधिक दुःखदायी पूजा द्रव्य के प्रवाहित हो जाने से रावण क्रोधान्वित होकर बोल उठा'अकारण ही मेरा कौन शत्रु बना है जो मेरी अर्हत् पूजा में विघ्न डालने के लिए ही इस दुनिवार जलराशि को फैला दिया है । क्या