________________
[29
ममताहीन हूं, राग और द्वेष रहित हूं, समता जल में निमग्न हूं फिर भी प्राणी और चैत्य की रक्षा के लिए राग और द्वेष न रखकर उसे सामान्य प्रतिबोध देना आवश्यक है। (श्लोक २४४-२५२)
_ऐसा विचार कर भगवान् बाली ने पाँव के अंगुष्ठ से अष्टापद पर्वत को दबाया। उसी दबाव से मध्याह्न काल में देह की छाया जिस प्रकार संकुचित हो जाती है या जल से बाहर करने में कच्छप का माथा जिस प्रकार संकुचित हो जाता है उसी प्रकार रावण का शरीर संकुचित हो गया। उसके हाथ टूटने लगे, मुह से खून निकलने लगा, पृथ्वी को रुलाकर रावण उच्च स्वर में रोने लगा। उसी दिन से इसीलिए उसका एक और नाम हुआ रावण । उसका हृदय को द्रवित कर देने वाला क्रन्दन सुनकर दयालु बाली ने उसे छोड़ दिया। कारण, यह कार्य उन्होंने केवल रावण को शिक्षा देने के लिए ही किया था क्रोध के वशीभूत होकर नहीं।
(श्लोक २५३-२५६) प्रतापहीन रावण पर्वत तल से निकल कर पश्चाताप करता हुआ बाली के पास गया और करबद्ध होकर बोला- (श्लोक २५७)
__ 'निर्लज्ज मैं बार-बार अपराध कर आपको सता रहा हं; किन्तु महामना और दयालु आप शक्तिशाली होते हुए भी सब कुछ सहन करते रहे हैं। आपने कृपा के वशीभूत होकर मेरे लिए पृथ्वी का परित्याग किया, इसलिए नहीं कि आप दुर्बल थे; किन्तु मैं तब भी नहीं समझा। अज्ञानवश हाथी जिस प्रकार पर्वत को उखाड़ना चाहता है मैं भी उसी प्रकार आपको उखाड़ना चाहता था। अब मैंने मेरी और आपकी शक्ति का परिमाप कर लिया है। कहां पर्वत कहां बल्मिक, कहां गरुड़, कहां गिद्ध ? मैं तो मरने ही वाला था आपने ही मुझे जीवनदान दिया है। मुझ अपराधी पर भी आपने जो उपकार किए हैं उसके लिए आपको बार-बार नमस्कार ।'
(श्लोक २५८-२६२) इस प्रकार पृढ़ भक्ति के साथ बाली मुनि से प्रार्थना कर, क्षमा मांग तीन प्रदक्षिणा दे रावण ने नमस्कार किया। बाली मुनि की इस उदारता पर देवों ने आकाश से 'साधु साधु' कहकर उन पर पुष्प वृष्टि की।
(श्लोक २६३-२६४) दूसरी बार फिर बाली मुनि को नमस्कार कर रावण पर्वतों