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जाती है, आलान-स्तम्भ से बंधे हाथी की गति रुद्ध हो जाती है, उसी भाँति अपने विमान की गति रुद्ध होते देखकर रावण क्रुद्ध हो उठा।
(श्लोक २३५-२३८) ___'कौन मेरे विमान की गति रुद्ध कर मृत्यु का आह्वान कर रहा है, कहकर वह जैसे ही विमान से उतरा तो पर्वत शिखर पर उसने नवीन उद्गत शृङ्ग-से कायोत्सर्ग स्थित बाली को देखा। अपने विमान के नीचे बाली को देखकर रावण बोल उठा-'मूनिवर बाली, क्या अभी भी तुम्हारा क्रोध मेरे ऊपर से नहीं हटा ? क्या तुमने जगत को ठगने के लिए यह व्रत धारण कर रखा है ? उस समय किसी माया बल से तुमने मुझे उठा लिया था। मैं उसका बदला लूगा, सोचकर तुमने मुनि दीक्षा ग्रहण ली; किन्तु मैं तो अभी भी वही रावण हूं। और मेरी भुजाएँ भी वही हैं । आज समय आ गया है, तुमने जो कुछ किया था उसका बदला लेने का। तुम मुझे चन्द्रहास खड्ग सहित उठाकर चार समुद्रों तक घूम आए थे, मैं आज तुम्हें इसी अष्टापद पर्वत सहित उठाकर लवण समुद्र में फेंक दूंगा।'
(श्लोक २३६-२४३) ऐसा कहकर आकाश से गिरी बिजली जिस प्रकार धरती को विदीर्ण कर देती है उसी भाँति पृथ्वी को विदीर्ण करता रावण अष्टापद पर्वत के तल में प्रविष्ट हुआ। तदुपरान्त भुजबल उद्धत उसने एक हजार विद्याओं को स्मरण कर उस दुर्धर पर्वत को उठाया। उसी समय तड़-तड़ करते व्यन्तर देव त्रासित होकर जमीन पर गिरने लगे। झल-झल शब्दों से चंचल हुआ समुद्र जल पृथ्वी को आच्छादित करने लगा। खड-खड शब्द के साथ गिरती हुई शिलाओं से हस्तीदल क्षुब्ध हो गया एवं कड़-कड़ करते गिरि नितम्ब के उपवन में वक्ष समूह टूट-टूट कर गिरने लगे। इन सभी दृश्यों को अनेक लब्धि रूपी नदी को धारण करने वाले समुद्र रूप शुद्धबुद्धि महामुनि बाली ने देखा। वे सोचने लगे, हाय, यह दुर्मति रावण आज तक मेरे प्रति द्वेषपरायण रहा है एवं इसी द्वेष के कारण असमय में ही अनेकों की हत्या करने में प्रवृत्त हुआ है। इतना ही नहीं भरतेश्वर द्वारा निर्मित इस चैत्य को भी नष्ट कर भरतक्षेत्र के अलङ्कार रूप इस तीर्थ को उच्छेद करने का प्रयत्न कर रहा है। यद्यपि मैं इस समय निःसंग हूं, अपने शरीर से भी