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रोते यमराज को जाकर समस्त कथा निवेदन की। उनकी बात सुनकर यम साक्षात् यम की तरह प्रतिभासित होने लगा और मानो युद्धरूपी नाटक का सूत्रधार हो इस प्रकार अपनी सेना लेकर क्रोध से आंखें लाल किए युद्ध करने नगर से निकला । सैनिक सैनिक के साथ, सेनापति सेनापति के साथ, क्रुद्ध यम क्रुद्ध रावण के साथ युद्ध करने लगा। बहुत देर तक यम और रावण के मध्य बाणयुद्ध चलता रहा। तदुपरान्त उन्मत्त हाथी जैसे सूड रूपी दण्ड उठाकर दौड़ता है वैसे ही स्वदण्ड लिए यम रावण की ओर दौड़ा । शत्रुओं को नपुंसक रूप गिनने वाले रावण ने क्षुरप्र बाण से कमल नाल की तरह यमदण्ड के टुकड़े-टुकड़े कर डाले । तब यम ने बाण वर्षा कर रावण को आच्छादित कर दिया। रावण ने भी उन बाणों को इस प्रकार नष्ट कर डाला जैसे लोभ समस्त गुणों को नष्ट कर देता है। तदुपरान्त एक साथ बाण-वर्षा कर रावण ने जैसे जरा (बुढ़ापा) मनुष्य को जर्जरित कर देती है उसी प्रकार यम को जर्जर कर डाला। तब यम युद्ध-क्षेत्र से भागकर रथनुपुर गया और वहां विद्याधरराज इन्द्र की शरण ली और उसे नमस्कार कर करबद्ध होकर बोला-'हे प्रभो, अब मैं यमत्व को जलाजलि दे आया हूं। आप तुष्ट हों या रुष्ट, अब मैं यमत्व नहीं करूंगा । कारण, अब तो यम का भी यमरूप रावण उत्पन्न हो गया है। उसने नरक के रक्षकों को मारकर दूर भगा दिया और समस्त नारकियों को मुक्त कर दिया है। क्षात्र व्रत के लिए ही उसने मुझे जीवित छोड़ दिया है। उसने वैश्रवण को पराजित कर लंका व पुष्पक विमान अधिकार में कर लिया है। सुरसुन्दर-से वीर को भी उसने पराजित कर दिया है।'
(श्लोक १४९-१६०) यम की यह बात सुनकर विद्याधर राज इन्द्र युद्ध के लिए तुरन्त प्रस्तुत हुए; किन्तु कुल-मन्त्रियों ने समझा-बुझाकर उसे वीर रावण के साथ युद्ध करने से रोक दिया। इन्द्र तब यम को सुरसंगीत नामक नगर का राज्य देकर भोग सुख में पूर्ववत् निमज्जित होकर रथनपुर में रहने लगे। (श्लोक १६१-१६२)
इधर बलवान् रावण आदित्यरजा को किष्किन्ध्या का और ऋक्षराज को ऋक्षपुर का राज्य देकर स्वयं लंका को लौट गया । लोग जैसे देवों की स्तुति करते हैं वैसे ही नगरजन और आत्मीय.