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त्रयोदश सर्ग
अब सर्वविजयी जय चक्रवर्ती का जीवनवृत्त वर्णन कर रहे हैं जो कि भगवान् नमि के तीथ में हुए थे । ( श्लोक १ )
जम्बूद्वीप के ऐरावत वर्ष में श्रीपुर नामक नगर में वसुन्धर नामक एक राजा राज्य कर रहे थे । उनकी रानी का नाम था पद्मावती । रानी पद्मावती की मृत्यु से दुःखी होकर राजा ने अपने पुत्र को सिंहासन पर बैठाया और मनोहर उद्यान में जाकर वरधर्म मुनि से धर्म श्रवण कर दीक्षा ग्रहण कर ली और दीर्घ दिनों तक सुचारु रूप से मुनिधर्म का पालन कर मृत्यु के पश्चात् सप्तम देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुए । ( श्लोक २-५ )
मगध देश का अलङ्कार रूप और श्री के निवास स्थल- सा अमरावती तुल्य राजगृह नामक एक नगर था । वहाँ सर्वदा विजयी विजय नामक इक्ष्वाकुवंशीय सच्चरित एक राजा राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम था वप्रा । वे जैसी चारित्र सम्पन्ना थीं वैसी ही रूप लावण्यसम्पन्न भी थीं । उन्हें देखकर लगता मानो कोई देवी ही स्वर्ग से मृत्युलोक में उतर आई है ( श्लोक ६-८ ) कालक्रम से शुक्र नामक देवलोक से वसुन्धर के जीव ने च्युत होकर उनकी कुक्षि में प्रवेश किया । तब उन्होंने चक्रवर्ती के जन्मसूचक चौदह महास्वप्न देखे यथासमय उन्होंने बारह धनुष दीर्घ स्वर्णवर्णीय एक पुत्र को जन्म दिया । उसका नाम जय रखा गंगा । ( श्लोक ९-१० )
वयः प्राप्त होने पर उनके पिता ने उन्हें सिंहासन पर बैठाया । कालक्रम से उनकी आयुधशाला में चक्रवर्तीत्व सूचक चक्ररत्न उत्पन्न हुआ और क्रमश: छह - छत्र, मणि, दण्ड, खड्ग, चक्र और काँकिनी पूरे सात एकेन्द्रिय रत्न उत्पन्न हुए । तदुपरान्त पुरोहित, गृहपति, अश्व, गज, सेनापति, वर्द्धकी और स्त्री - ये सात पंचेन्द्रिय रत्न उत्पन्न हुए । (श्लोक ११-१३)
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दिग्विजय के लिए चक्र का अनुसरण करते हुए वे पूर्वी समुद्र तक गए और मगध तीर्थाधिपति को उनकी अधीनता स्वीकार करने को बाध्य किया । वहाँ से वे दक्षिण समुद्र की ओर गए और वरदाम पति को जीत लिया । कारण पृथ्वी पर देव भी चक्रवर्ती तुल्य नहीं होते । फिर वे पश्चिम समुद्र की ओर गए और तीर निक्षेप कर सहज ही प्रभासपति को जीत लिया ।