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देशना समाप्त होने पर शक और अन्यान्य उन्हें वन्दना कर स्व-स्व स्थान को चले गए । ( श्लोक ९६-९७ ) प्रभु के तीर्थ में त्रिनेत्र चतुर्मुख स्वर्ण वर्ण वृषभ-वाहन भृकुटि नामक यक्ष उत्पन्न हुए । उनके दाहिनी ओर के चार हाथों के तीन हाथों में नींबू, विजोरा, वरछी और हथोड़ी थी और एक हाथ अभय मुद्रा में था । बायीं ओर के चार हाथों में नकुल, कुठार, बज्र और अक्षमाला थी । इसी प्रकार शुभ्र वर्ण हंसवाहना गान्धारी यक्षिणी उत्पन्न हुई। उनके दाहिनी ओर के एक हाथ में तलवार और दूसरा हाथ वरद मुद्रा में था । और बायीं ओर के दोनों हाथों में नींबू, विजोरा था। वे दोनों भगवान नमि के शासन देव - देवी हुए । नौ महीने कम अढ़ाई हजार वर्ष तक भगवान नमि शासन देव - देवी सहित पृथ्वी पर विचरण करते रहे ।
( श्लोक ९८-१०२ ) उनके संघ में २०००० साधु, ४१००० साध्वियाँ, ४५० चौदह पूर्वधारी, १६०० अवधिज्ञानी, १२६० मनः पर्यवज्ञानी, १००० वादी, १७०००० श्रावक और ३४८००० श्राविकाएँ थीं । ( श्लोक १०३ - १०७ ) अपना मोक्षकाल निकट जानकर प्रभु १००० मुनियों सहित सम्मेद शिखर पर गए और अनशन ग्रहण किया। एक मास अनशन के पश्चात् वैशाख शुक्ला दसमी को अश्विनी नक्षत्र का योग आने पर प्रभु और मुनिगण कर्म क्षय कर शाश्वत अक्षय पद मोक्ष प्राप्त किया । भगवान नमि की पूर्ण आयु दस हजार वर्ष की थी । वे २५०० वर्ष युवराज रूप में, ५००० वर्ष राजा रूप में, २५६० वर्ष व्रती रूप में रहे । भगवान मुनि सुव्रत के समय से भगवान नमि के निर्वाण के मध्य छह सौ हजार वर्ष व्यतीत हुए । इन्द्र और देवगण वहाँ आए और नमिनाथ स्वामी एवं मुनियों का अन्तिम संस्कार सम्पन्न कर निर्वाण महोत्सव मनाया ।
( श्लोक १०८ - ११२ )
एकादश सर्ग समाप्त द्वादश सर्ग
जिस समय जिनेश्वर नमि छद्मस्थ अवस्था में विचरण कर रहे थे, उस समय चक्रवर्ती हरिषेण राज्य कर रहे थे । का वर्णन कर रहे हैं ।
उनके जीवन ( श्लोक १ )