________________
[267
करते हैं ? जबकि सङ्कल्प से ही कामदेव उत्पन्न होते हैं और विश्व को विमोहित करते हैं तो उस सङ्कल्प को ही हृदय से उखाड़ डालो। जिसमें सब दोष वर्तमान हैं उनके प्रतिकार का चिन्तन करें। ऐसा करने पर दोष-मुक्त मुनि देवों की तरह आनन्द प्राप्त करने में समर्थ होगे।
(श्लोक ७६-८५) ___'समस्त जीवों के लिए महादुःखदायी इस भव-स्थिति का चिन्तन कर जो स्वभाव से ही सुखदायक है ऐसे मोक्षमार्ग का अवलम्बन लें। जो मार्ग जिनेश्वर देव, निर्ग्रन्थ गुरु और दया धर्म का है ऐसे श्रावक धर्म की प्रशंसा विवेकी मात्र करते हैं। अतः जिनधर्म की प्राप्ति स्वरूप श्रावक धर्म की अनुमोदना कर यह चिन्तन करें-मुझे ऐसा चक्रवर्ती पद नहीं चाहिए जिसके कारण जिन-धर्म की छाया से भी वंचित होना पड़े। इससे तो सम्यकत्व युक्त दारिद्रय यहाँ तक कि क्रीतदासत्व भी अच्छा है। वह शुभ मुहर्त कब आएगा जबकि संसार के समस्त सम्बन्धों को छिन्न कर जीर्ण वस्त्र पहन कर देह को संस्कारित न कर एवं मधुकरी वृत्ति ग्रहण कर मैं मुनिधर्म ग्रहण करूंगा? दुराचारियों का सङ्ग त्याग कर गुरुदेवों की चरण-रज मस्तक पर धारण कर कब मैं ध्यानाविष्ट होकर भव-बन्धन नष्ट करने की शक्ति अजित करूंगा? कब आधी रात को नगर के बाहर कायोत्सर्गस्थित मेरी देह ऐसी नि:स्पंद हो जाएगी कि काष्ठ का भ्रम कर वृषभ अपना शरीर खजलाने के लिए घर्षण करेंगे? कब मैं अरण्य में पद्मासन में स्थित होकर ध्यान में इतना निमग्न हो जाऊँगा कि वन के मृगशावक मेरी गोद में खेलेंगे और यूथपति मृग मेरे मुख को आध्राण करेंगे (सूगे) ? कब मैं शत्रु और मित्र, तृण और नारी, स्वर्ग और पाषाण, मणि और मिट्टी, संसार और मुक्ति में समबुद्धि रखूगा? इस प्रकार मुक्ति रूप प्रासाद पर चढ़ने को सीढ़ी रूप गुण श्रेणियों के आरोहण के लिए परमानन्द के कन्द रूप मनोरथ सर्वदा करते रहें। प्रमादरहित होकर इस भाँति दिन-रात चारित्र का पालन कर और उपयुक्त व्रतों में सुदृढ़ होकर सामान्य गृहस्थ भी शुद्ध हो सकते हैं।'
(श्लोक ८६-९५) भगवान को ऐसी देशना सुनकर अनेकों ने श्रमण-धर्म ग्रहण किया जिनमें कुम्भादि सतरह गणधर भी थे। भगवान की देशना समाप्त होने पर कुम्भ गणधर ने देशना दी। कुम्भ गणधर की