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सीता के शील की प्रशंसा करते हुए नारदादि आकाश में नृत्य करने लगे। सन्तुष्ट हुए देव सीता पर पुष्प वर्षा करने लगे। 'अहो ! राम-पत्नी सीता कितनी यशस्वी है'-इस ध्वनि से आकाश
और पृथ्वी गुञ्जायमान हो गए। अपनी माँ का प्रभाव देखकर लवण और अंकुश अत्यन्त आनन्दित हो गए और हंस की तरह तैरते हुए उसके पास पहुंच गए। सीता ने उनके मस्तक को सूघ कर अपने पास दोनों ओर बैठाया। वे दोनों कुमार नदी के दोनों तटों पर अवस्थित हो हस्ती-शावक से सुशोभित होने लगे।
(श्लोक २२०-२२३) उसी समय लक्ष्मण, शत्रुघ्न, भामण्डल, विभीषण, सुग्रीवादि वीरों ने भक्तिभाव से सीता को प्रणाम किया। तदुपरान्त अति मनोहर कान्तियुक्त राम भी सीता के पास आए। उनका हृदय लज्जा और पश्चात्ताप से भर उठा था। वे करबद्ध होकर बोले'हे देवि ! स्वभाव से ही पर-दोष देखने वाले नगरवासियों के कहने से मैंने तुम्हारा परित्याग किया, इसके लिए मुझे क्षमा करो। भयंकर हिंसक पशुओं के वन में भी तुम स्वप्रभाव से जीवित थी। वह एक प्रकार से तुम्हारा दिव्य ही था; किन्तु मैं वह समझ नहीं सका। जो कुछ भी हो, अब तुम मुझे मेरे पूर्व कृत्यों के लिए क्षमा करो। इस पुष्पक विमान में बैठकर घर चलो और पूर्व की तरह ही मुझे आनन्दित करो।'
श्लोक २२४-२२८) सीता बोली, 'इसमें आपका या अयोध्यावासियों का क्या दोष ? दोष तो मेरे पूर्व कर्मों का है। अतः दुःख के आवर्त में डालने वाले कर्मों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए, उन्हें नष्ट करने के लिए मैं अब दीक्षा ग्रहण करूंगी।'
(श्लोक २२९-२३०) ऐसा कहकर सीता ने अपने हाथों से केश-उत्पाटन कर जिस प्रकार तीर्थंकर अपने केशों को इन्द्र के हाथों में दे देते हैं उसी प्रकार राम के हाथों में दे दिया। यह देखकर राम मूच्छित हो गए। राम की मूर्छा टूटने के पूर्व ही सीता जयभूषण मुनि के निकट चली गई। जयभूषण मुनि ने सीता को तत्काल विधिपूर्वक दीक्षा दे दी। फिर तप-परायणा साध्वी सीता को सुप्रभा नामक गणिनी के हाथों में सौंप दिया।
(श्लोक २३१-२३३) नवम सर्ग समाप्त